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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
चले । मागध तीर्थं पर जाकर उन्होंने लवण समुद्र में प्रवेश किया और बाण छोड़ा | नामांकित बाण बारह योजन की दूरी पर मागध तीर्थाधिपति देव के वहाँ गिरा । पहले वह क्रुद्ध हुआ पर भरत चक्रवर्ती नाम पढ़कर वह उपहार लेकर पहुँचा । इस तरह चक्र - रत्न के पीछे चलकर वरदाम तीर्थ कुमार देव को अधीन किया, उसके बाद प्रभास कुमार देव, सिन्धु देवी, वैताढ्यगिरि कुमार, कृतमालदेव आदि को अधीन करते हुए भरत सम्राट ने षट्खण्ड पर विजय वैजयन्ती फहराई ।
चक्रवर्ती के पास चौदह रत्न और नौ निधियाँ होती हैं। चौदह रत्न इस प्रकार हैं
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१. चक्र - रत्न - यह आयुधशाला में उत्पन्न होता है । सेना के आगे प्रयाण करता हुआ चक्रवर्ती को षट्खण्ड साधने का मार्ग दिखाता है । चक्रवर्ती उसकी सहायता से शत्रु का शिरच्छेदन भी कर सकता है ।
२. छत्र - रत्न - यह रत्न बारह योजन लम्बा और चौड़ा होता है । छत्राकार के रूप में सेना की सर्दी, वर्षा एवं धूप से रक्षा करता है । छत्री की भाँति उसको समेटा भी जा सकता है ।
३. दण्ड- रत्न - यह विषम मार्ग को सम बनाता है । वैताढ्य पर्वत की दोनों गुफाओं के द्वार खोलकर उत्तर भारत की ओर चक्रवर्ती को पहुँचाता है । दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से वृषभाचल पर्वत पर नाम लिखने का कार्य भी यह रत्न करता है ।
४. असि - रत्न - यह रत्न पचास अंगुल लम्बा, सोलह अंगुल चोड़ा एवं आधा अंगुल मोटा होता है । अपनी तीक्ष्ण धार से यह रत्न दूर में रहे हुए शत्रुओं को भी नष्ट कर डालता है ।
५. मणि रत्न - सूर्य और चन्द्रमा की तरह यह रत्न अन्धकार को नष्ट करता है । इस रत्न को मस्तक पर धारण कर लेने से मनुष्य, देव तथा तिर्यंच कृत उपसर्ग नहीं होता है । हस्तिरत्न के दक्षिण कुम्भ स्थल पर रख देने से अवश्यमेव विजय होती है |
६, काकिणी रत्न - यह रत्न चार अंगुल प्रमाण का होता है । इस रत्न से चक्रवर्ती वैताढ्य पर्वत की गुफा में उन पचास मण्डल बनाते हैं । एक-एक मण्डल का प्रकाश एक-एक योजन तक फैलता है और इसी रत्न से चक्रवर्ती ऋषभकूट पर्वत पर अपना नाम अंकित करते हैं ।
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