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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
यहाँ नगर कम थे और गाँवों में बस्ती भी कम थी। वहां के लोग असभ्य थे । साधु को देखते ही उन पर टूट पड़ते । वहाँ पर तिल भी नहीं थे और गायें भी बहुत कम थीं। इसलिए घी, तेल सुलभ नहीं था। लोग रूखा-सूखा खाते थे, अतः वे स्वभाव से भी रूखे थे।1 बात-बात में उत्तेजित होकर गाली देते, झगड़ा करते । वहाँ पर कुत्तों का अधिक उपद्रव था, वे कुत्ते बड़े खूखार थे। अन्यतीथिक भिक्षु उनसे बचने के लिए लाठी और डण्डा रखते थे, पर भगवान् पूर्ण अहिंसक थे। उनके पास लाठी आदि नहीं थी, इसलिए वे निःशंक होकर भगवान् पर हमला करते, कितने ही अनार्य तो छू-छू करके कुत्तों को बुलाते तथा भगवान् को काटने के लिए उकसाते । दुष्कर और दुर्गम परीषह एवं उपसर्गों को भगवान् महावीर शान्ति से सहन करते ।
जिन साधकों की चेतना का स्तर निम्न होता है, उन्हें शारीरिक कष्टों की अनुभूति अधिक होती है। किन्तु शगवान महावीर की चेतना का स्तर बहुत ही उच्च था। वे चाहे जितना कठोर तप करते लेकिन साथ में समाधि का सतत् प्रेक्षण करते रहते । वे जिस किसी भी क्रिया को करते, उसमें पूर्णतया तन्मय हो जाते । न अतीत की स्मृति सताती और न भविष्य की कल्पना ही परेशान करती । वे केवल वर्तमान में रहकर ही उस क्रिया को सर्वात्मना समर्पित होकर करते । वे जब चलते थे तो इधरउधर झांकते भी नहीं थे और न अन्य बातों पर चिन्तन ही करते । वे जब खाते थे तो खाते ही थे, स्वाद की ओर ध्यान नहीं देते और न बातचीत ही करते । वे इतने अधिक आत्म-विभोर थे कि उन्हें भूख-प्यास, सर्दी गमी आदि की कोई भी अनुभूति नहीं होती। उनकी चेतना की समग्र धारा आत्मा की ओर प्रवाहित थी। इस प्रकार भगवान महावीर की साधना का रोमांचकारी वर्णन प्रस्तुत ग्रन्थ में है।
साढ़े बारह वर्ष के मुदीर्घकाल की साधना के पश्चात् भगवान् को केवलज्ञान एवं केवलदर्शन का दिव्य आलोक प्राप्त हआ। भवनपति वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देवों ने आकर कैवल्य-महोत्सव उल्लास के क्षणों में सम्पन्न किया।
१ आवश्यकचूणि, पृष्ठ ३१८ २ आचारांग-शीलांकाचार्य टीका, पत्र ३१०-३११
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