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________________ उत्तम पुरुषों की कथाएँ १२७ रहित, स्फूर्तिवान रखने का प्रयास करते । भगवान् की निद्रा संयम - विधि अद्भुत थी । वे ध्यान के द्वारा निद्रा संयम करते थे । निद्रा पर विजय प्राप्त करने के लिए वे कभी खड़े होते, कभी चंक्रमण करते । वे ऐसा उपाय करते, जिससे निद्रा उन्हें परेशान नहीं करे 11 भगवान् को वास स्थानों में प्रायः ये उपसर्ग सहन करने पड़ते । कभी सांप, नेवला उन्हें काटते, कभी गिद्ध आदि पक्षी उनका माँस नोंचते, कभी चींटी, डांस, मच्छर, मक्खी आदि उन्हें संत्रस्त करते, कभी शून्य गृह में तस्कर व लम्पट पुरुष उन्हें सताते, कभी सशस्त्र ग्रामरक्षक उन पर आक्रमण करते, कभी कामासक्त ललनाएं हाव-भाव - कटाक्ष द्वारा उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करतीं, कभी देव, मानव एवं तिर्यंचों के विविध उपसर्ग उपस्थित होते और कभी एकाकी समझकर भगवान् को विविध प्रकार के ऊटपटांग प्रश्न पूछकर ध्यान से विचलित करने का प्रयास करते 12 भगवान् को ठहरने के लिए कभी भयंकर दुर्गन्ध युक्त स्थान मिलता, कभी ऊबड़-खाबड़ विषम स्थान मिलता । कभी बन्द स्थान के अभाव में सर्दी का प्रकोप उन्हें परेशान करता । इस प्रकार साढ़े बारह वर्ष तक अहनिश यत्नशील, अप्रमत्त होकर भगवान् महावीर ध्यानस्थ रहे । आवश्यकचूर्णि के अनुसार भगवान् महावीर ने चिन्तन किया कि मुझे बहुत से कर्मों की निर्जरा करनी है, अतः लाढ़ देश की ओर जाऊँ, जिससे अधिक कर्म - निर्जरा के निमित्त उपलब्ध होंगे। ऐसा विचारकर भगवान् लाढ़ प्रदेश में पधारे । ऐतिहासिक अन्वेषणा के आधार पर यह पता चला है कि वर्तमान में वीरभूम सिंहभूम तथा मान भूम (धनवाद आदि जिले ) एवं पश्चिम बंगाल के तमलुक, मिदनापुर, हुगली तथा वर्धवान जिले का हिस्सा लाढ़ देश माना जाता था । लाढ़ देश पर्वतों, झाड़ियों और सघन जंगलों के कारण अत्यन्त दुर्गम था । उस प्रदेश में घास अत्यधिक होती थी । चारों ओर पर्वतों से घिरा होने के कारण सर्दी और गर्मी वहाँ अधिक पड़ती थी । वर्षा ऋतु में पानी अधिक होने से दलदल हो जाती, जिससे डांस, मच्छर जलोंका प्रभूति अनेक जीव-जन्तु पैदा हो जाते थे । १ आचारांग - शीला० टीका, पत्र ३०७ - ३०८ २ आचारांग - शीला० टीका, पत्र ३०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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