SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा है । बौद्ध साहित्य में भी वर्णन है कि साधक भित्ति पर दृष्टि टिका कर ध्यान करे । जब भगवान् तिर्यक भित्ति पर दृष्टि जमाकर ध्यान करते थे तब उनकी आँखों की पुतलियाँ ऊपर उठ जाती थीं, जिन्हें निहार कर बालकों की मण्डली भयभीत हो जाती थी, और वह बच्चों की टोली मिलकर इस प्रकार चिल्लाती कि अन्य सामान्य साधक ध्यान नहीं कर पाता पर भगवान विघ्न उपस्थित होने पर भी ध्यान में मग्न रहते। भगवान् महावीर एकान्त स्थान न मिलने पर जब गृहस्थों तथा अन्यतीर्थिकों के संकुल स्थान पर ठहरते तो उनके अद्भुत रूप-यौवन को देखकर कामातुर स्त्रियाँ उनसे प्रार्थना करतीं और ध्यान में विघ्न डालतीं। महावीर अब्रह्म का सेवन न कर ध्यान में लीन रहते थे। कई बार विविध प्रकार के प्रश्न पूछकर लोग उनके ध्यान में विघ्न डालते, पर भगवान् किसी से कुछ नहीं कहते थे। यदि एकान्त स्थान मिल जाता तो महावीर वहाँ चले जाते और न मिलता तो भीड़-संकूल स्थान में भी अपने आपको एकाकी बनाकर ध्यानस्थ रहते । जो भगवान् को अभिवादन करते तो भी महावीर आशीर्वाद प्रदान नहीं करते थे। कुछ अभागों ने प्रभु को डण्डों से पीटा, उन पर पागल कुत्ते छोड़े तो भी उन्होंने शाप नहीं दिया। समौन रहकर ध्यान में मग्न रहे । यह स्थिति सामान्य साधक के लिए बहुत ही कठिन थी। वीणावादकों ने भगवान से कहा-जरा ठहरो ! हमारा वीणावादन सूनकर आगे बढ़ो। कितने ही नृत्य-संगीत, दण्ड-युद्ध, मुष्टि-युद्ध आदि मनोरंजक कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए निवेदन करने पर भगवान् प्रतिकुल और अनुकूल परिस्थितियों को ध्यान में विघ्न समझकर उनसे विरत रहते तथा अपने ध्यान में स्थित रहते । भगवान् महावीर को संयमसाधना के मुख्य आठ अंग थे-शरीरसंयम, मन संयम, आहारसंयम, वासस्थानसंयम, इन्द्रियसंयम, निद्रासंयम, क्रिया-संयम और उपकरणसंयम । विविध प्रकार के आसन, त्राटक आदि सहज-योग की क्रियाओं से शरीर को सुस्थिर, सन्तुलित, मोह-ममता १ भगवती सूत्र वृत्ति पत्र ६४३-६४४ २ आचारांग-शीला० टीका, पत्र ३०२ ३ आचारांग-शीला० टीका, पत्र ३०२ ४ आचारांग-शीला० टीका, पत्र ३०२ ५ आयारो-मुनि नथमल, पृ० ३४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy