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१२४ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
लौट जाते । पाँच मास और पच्चीस दिन व्यतीत हो जाने पर भी उनकी मुख-मुद्रा उसी तरह तेजोदीप्त थी । अन्त में चन्दनबाला के हाथ से भगवान् का अभिग्रह पूर्ण हुआ । 1
भगवान् महावीर के साधनाकाल में प्रविष्ट होते ही प्रथम उपसर्ग भी ग्वाले ने दिया था एवं अन्तिम उपसर्ग भो ग्वाले के द्वारा दिया गया । ग्वाले ने भगवान् महावीर के कानों में कीलें (कांस्य को तीक्ष्ण शलाकाएँ) ठोंकी । उन शलाकाओं को कोई न देख ले, अतः उनका बाह्य भाग छेद दिया । प्रभु को अत्यधिक वेदना होने पर भी वे पूर्ण शान्त एवं प्रसन्न थे । खरक वैद्य ने जब भगवान् ध्यानस्थ थे, तब शरीर पर तेल का मर्दन किया और संडासी से पकड़कर शलाकायें निकालीं । कानों से रक्त की धारा प्रवाहित हुई । वैद्य ने 'संरोहण' औषधि से रक्त को वन्द कर दिया । भगवान् महावीर को जो शताधिक उपसर्ग प्राप्त हुए, उन सभी उपसर्गों में यह उपसर्ग सबसे बड़ा था । 3 ग्वाले की तीव्र अशुभ भावना होने से वह मरकर सातवीं नरक में गया और वैद्य खरक की प्रशस्त भावना होने से वह देवलोक का अधिकारी बना । 4
आवश्यक नियुक्ति के अनुसार अन्य तीर्थंकरों की अपेक्षा महावीर का तपःकर्म अधिक उत्कृष्ट था। बारह वर्ष और तेरह पक्ष की लम्बी अवधि में केवल तीन सौ उनपचास ( ३४६ ) दिन भगवान् ने आहार ग्रहण किया और शेष दिन निर्जल और निराहार रहे ।"
१ आवश्यकचूर्ण ३१६
१ आवश्यकचूर्णि ३२२
३ (क) अहवा जहन्नगाण उवरि कडपूयणासीतं, मझियाण काल चक्कं, उक्कोसग्गण उवरि सल्लुद्धरणं ! - आवश्यकचूर्णि, पृष्ठ ३२२
(ख) महावीर चरियं ७/२५०
४ एवं गोवेण आरद्धा उवसग्गा गोवेण चेव निट्ठिता । गोवो सत्तमिगतो, खरतो य दिलोगं तिव्वमपि उदीरतं तावि सुद्धभावा !
५ उग्गं च तवोकम्मं विसेसओ वद्धमाणस्स । ६ (क) तिणि सत्त दिवसाणं अउणापण्णे व ठितपडिमा सते बहुए ।
( ख ) विशेषावश्यकभाष्य १६६६
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- आवश्यकचूर्ण, पृष्ठ ३२२ - आवश्यक नियुक्ति पारणाकालो उक्कुडुअणि सेज्जाणं - आवश्यक नियुक्ति ४१७
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