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उत्तम पुरुषों की कथाएँ
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पर पुरुवेल ने बुद्ध को वहाँ रहने की स्वीकृति प्रदान की। बुद्ध अपना आसन लगाकर वहाँ बैठ गये । नागराज बुद्ध को देखकर बहुत ही क्रुद्ध हुआ। वह जहरीला धुआं उगलने लगा । बुद्ध ने अपने विशिष्ट योगबल से नागराज के चर्म, मांस, अस्थि, मज्जा को बिना किसी प्रकार की क्षति पहुँचाये उसका सारा तेज खींच लिया। प्रातः उसे अपने पात्र में रखकर पुरुवेल काश्यप को दिखाते हुए कहा-अब यह नागराज पूर्णरूप से निविष हो गया है। यह नागराज अब किसी को भी क्षति नहीं पहुँचायेगा। भगवान् महावीर ने चण्डकौशिक नाग का उद्धार किया तो तथागत बुद्ध ने चण्डनाग पर विजय पताका फहराई । घटना समान होने पर भी दोनों की क्रिया और शैली में अत्यधिक अन्तर है। महावीर की घटना अधिक प्रभावोत्पादकहै । महापुरुष स्नेह, सद्भावना, प्रेम, करुणा और अहिंसा का अमत बाँटते हैं। वे राग, द्वेष, ईर्ष्यारूपी नागों के भयंकर विष से स्वयं तो मुक्त होते ही हैं और विश्व को भी अभय बनाते हैं ।
संगमदेव ने भगवान महावीर को एक रात्रि में बीस भयंकर उपसर्ग दिये और उसके पश्चात् भी वह छह माह तक प्रभु के साथ रहकर उन्हें भयंकर कष्ट देता रहा, किन्तु भगवान् को वह विचलित न कर सका। यह प्रसंग भी आचारांग और कल्पसूत्र आदि में नहीं है। किन्तु आवश्यक नियुक्ति,1 विशेषावश्यक भाज्य' आदि अनेक श्वेताम्बर ग्रन्थों में यह प्रसंग मिलता है।
एक बार भगवान् महावीर ने घोर अभिग्रहं ग्रहण किया-'द्रव्य सेउड़द के बाकुले हों, शूर्प के कोने में हों, क्षेत्र से- दाता का एक पैर देहली के अन्दर व एक बाहर हो, काल से-भिक्षा वरी की अतिक्रान्त बेला हो, भाव से-राज्यकन्या हो, दासत्व प्राप्त हो, शृंखला-बद्ध हो, सिर से मुण्डित हो, तीन दिन की उपोसित हो, ऐसे संयोग में मुझे भिक्षा लेना है, अन्यथा छह मास तक मुझे भिक्षा नहीं लेना है ।
कठोरतम प्रतिज्ञा को ग्रहण कर भगवान् महावीर कोशाम्बी की झोंपड़ियों से लेकर उच्च अट्टालिकाओं में पधारते, पर बिना कुछ लिये ही
१ आवश्यकनियुक्ति ३८० २ विशेषावश्यकभाष्य १६३२ ३ आवश्यकचूणि ३१६.३१७
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