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________________ उत्तम पुरुषों की कथाएँ १२१ रांग तथा कल्पसूत्र में उनके तीन-तीन नाम आये हैं एवं पारिवारिक जनों के नाम भी वणित हैं। महावीर वार्षिक दान देकर बड़े ही उल्लास के क्षणों में एकाकी दीक्षित होते हैं ।1 दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न हआ। एक संवत्सर से अधिक मास तक भगवान् वस्त्रधारी रहे। उसके बाद वे अचेलक बन गये। उन्होंने नाना प्रकार के अभिग्रह ग्रहण किये। जो भी मनुष्य, देव तथा तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्ग उपस्थित हुए, उन्हें शान्तभाव से प्रभु ने सहन किये । आचारांग आदि में केवल उपसर्गों का संकेत है किन्तु कौन-कौन से उपसर्ग उन्हें साधना-काल में उपस्थित हए, इसका किंचित् मात्र भी वर्णन नहीं है। सर्वप्रथम आवश्यनियुक्ति एवं आवश्यक चणि आदि में उनके विविध उपसर्गों का क्रमबद्ध वर्णन है। सर्वप्रथस ग्वाला बैल गुम हो जाने से भगवान को चोर समझकर बैलों को बाँधने की रस्सी से उन्हें मारने दौड़ा। इन्द्र ने, प्रभु से, साथ में रहने की प्रार्थना की, किन्तु महावीर ने उसकी प्रार्थना को यह कहकर टाल दिया कि आत्मसिद्धि या मुक्ति दूसरों के सहारे प्राप्त नहीं हो सकती । शूलपाणि यक्ष ने भी प्रभु को रोमांचकारी कष्ट दिए । प्रथम बार इतने कष्ट एक साथ आये, जिससे उन्हें कुछ थकान महसूस हुई, और भगवान् को दस स्वप्न आये। उन दश स्वप्नों का उल्लेख प्रस्तुत ग्रन्थ में हुआ है। ये दस स्वप्न भगवान् के भावो जीवन को प्रतिबिम्बित कर रहे थे। ___अंगुत्तरनिकायों में तथागत बुद्ध ने भी अपने साधना काल की अन्तिम रात्रि में पांच स्वप्न देखे, जिनका सम्बन्ध उनके भावी जीवन से था। बुद्ध ने स्वप्न में देखा-मैं एक महापर्यंक पर सोया हुआ हूँ, मैंने हिमालय का उपधान [तकिया] लगा रखा है । बायें हाथ से मैं पूर्वी समुद्र को छू रहा हूँ और दायें हाथ से पश्चिमी समुद्र को स्पर्श कर रहा हूँ। मेरे पैर दक्षिण समुद्र को छू रहे हैं। इस स्वप्न का अर्थ है-मुझे पूर्ण बोधि प्राप्त होगी। बुद्ध ने दूसरे स्वप्न में देखा-"तिर्या" नामक एक वृक्ष उनके हाथ में पैदा हुआ और वह वृक्ष अनन्त आकाश को छूने लगा। १ आचाराङ्ग २/१५/२६. २ (क) अंगुत्तरनिकाय २-२४०. (ख) महावस्तु २/१३६. ३ प्रस्तुत स्वप्न का फल भगवती में उसी जन्म में मोक्ष में मोक्ष-प्राप्ति माना है। -भगवती १६/६ ,सूत्र ५८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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