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________________ १०८ जैन कथाओं की विकास मात्रा पार्श्व के पूर्वभव का नाम 'सुदर्शन' बताया है। उस भव में वे माण्डलिक राजा थे । मुनि बनने के पश्चात् ग्यारह अंग के ज्ञाता बने।। कल्पसूत्र में पार्श्व का जीवन-वृत्त प्राप्त होता है पर उसमें पार्श्व के पूर्वभवों का कोई उल्लेख नहीं है। पार्श्व के कुशस्थल जाने का, रविकीर्ति या प्रसेनजित के सहयोग से कलिंगराज यवन से युद्ध करने का तथा राजकुमारी प्रभावती से विवाह करने का कोई भी वर्णन नहीं है। उसमें कमठ व सर्प की घटना, मेघमाली कृत उपसर्गों का भी वर्णन नहीं है। भगवान् पार्श्व को किस निमित्त से वैराग्य हुआ? उसका भी उसमें उल्लेख नहीं है। आगम ग्रन्थों के पश्चात् रचित 'चउपन्न महापरिस चरियं' जिसके रचयिता आचार्य शीलांक हैं और 'सिरि पासनाह चरियं' जिसके रचयिता आचार्य अभयदेव के शिष्य आचार्य देव भद्र सरि हैं, 'त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र', जिसके रचयिता आचार्य हेमचन्द्र हैं। इन श्वेताम्बर आचार्यों ने पार्श्वनाथ के कथानक को विकसित किया है। दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य गुणभद्र ने उत्तरपराण में, महाकवि पुष्पदन्त ने महापुराण में, वादिराज सूरि ने 'पासनाह चरिउ' में भगवान पार्श्वनाथ के मौलिक प्रसंगों को उटैंकित किया है। पाभ्युिदय काव्य, जिसके रचयिता आचार्य जिनसेन है, यह काव्य उत्तरपुराण से भी पहले का है, पर यह काव्य-ग्रन्थ है। इसकी रचना कालिदास के 'मेघदूत' की भाँति हुई है । इस काव्य में "भगवान पार्श्व" ध्यानावस्था में अवस्थित हैं और शम्बर देव उन्हें उपसर्ग प्रदान करता है, इसका चित्रण हुआ है। किन्तु जीवन वत्त का परिचायक यह ग्रन्थ नहीं है। 'जिनरत्न कोष'1 से पता चलता है कि आचार्य मल्लीसेण ने भी महापुराण या त्रिषष्टिशलाका पुराण की रचना की है पर वह अभी तक प्रकाशित नहीं हो सका है। उसमें भी पार्श्व के जीवन के प्रसंग हैं। समवायांग में तीर्थंकरों के पूर्वभवों के नामों का कुल उल्लेख हुआ है, उसका विकसित रूप हमें विमलसूरि रचित 'पउमचरियं' में मिलता है। विमलसूरि ने अन्तिम दो भवों से पहले भव का विवरण प्रस्तुत किया है। सभी तीर्थंकरों के उस भव से सम्बन्धित जन्म, नगरियों के नाम, स्वयं के १. जिनरत्न कोष, लेखक-हरि दामोदर वेलनकर, पृ० १६२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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