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________________ १०६ जैन कथाओं की विकास यात्रा भगवान् अरिष्टनेमि लोकोत्तर महापुरुष थे। जीवन के उषा काल से ही उनमें विरक्ति की भावना अँगड़ाइयाँ ले रही थी। नारी उन्हें पराजित करने के लिए तुली हुई थी। वह हाव-भाव और विलास के द्वारा उनके वैराग्य को विचलित करना चाहती थी। श्रीकृष्ण की महारानियाँ विविध प्रकार की शृंगार चेष्टाएँ कर उन्हें संसार के प्रति आकर्षित करना चाहती थीं। मोह-मुग्ध रानियों की स्थिति पर चिन्तन करते हए अरिष्टनेमि के मुख पर हल्की सी स्मित रेखा उभरती तो रानियाँ झूम उठतीं अपनी सफलता पर ! वे यह कल्पना करतीं कि हमने इनके हृदय को जीत लिया है । पर अरिष्टनेमि तो हिमालय की तरह अडोल थे। भगवान् अरिष्टनेमि के युग का हम अध्ययन करें तो सूर्य के प्रकाश की भाँति यह स्पष्ट होगा कि उस युग में क्षत्रियगण मांस और मदिरा के पीछे पागल बने हुए थे। वे उसे अपना गौरव मानते थे । अरिष्टनेमि के विवाह के पावन-प्रसंग पर पशुओं को एकत्रित किया गया। हिंसा की इस पैशाचिक प्रवृत्ति की ओर जन-मानस का ध्यान केन्द्रित करने के लिए तथा क्षत्रियों को मांस-भक्षण से विरत करने के लिए वह बिना विवाह किये ही लौट गये । उनका यह लौटना क्षत्रियों के पापों का प्रायश्चित्त था। उसका अद्भुत प्रभाव बिजली की भाँति हआ। उससे सारा समाज विचलित हो उठा। अरिष्टनेमि के त्याग ने मानव समाज को नया मार्गदर्शन दिया । जो मानव अपनी क्षणिक तृप्ति के लिए दूसरे जीवों के जीवन साथ खिलवाड़ करते थे, उन्हें आत्मालोचन की प्रेरणा मिली कि हम किसी भी प्राणी को कष्ट न देंगे । भगवान् अरिष्टनेमि का यह अपूर्व उद्बोधन सभी प्राणियों के लिए वरदान था । __मदिरा ने ही द्वारिका का विनाश किया था। मदिरा के विरोध में अरिष्टनेमि ने जोरदार स्वर बुलन्द किया, जिसके फलस्वरूप द्वारिका में मदिरा-पान बिल्कुल ही बन्द हो गया। अरिष्टनेमि अध्यात्म जगत के तेजस्वी सूर्य थे । कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने गौ-पालन पर बल दिया; किन्तु भगवान् अरिष्टनेमि ने सभी प्राणियों की रक्षा पर बल दिया जिसके कारण भारत में अहिंसा की सुरीली स्वरलहरियाँ झंकृत हुई और वे इतने अधिक लोकप्रिय हुए कि वैदिक और बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों में भी अरिष्टनेमि का उल्लेख बहुत ही गौरव के साथ हुआ है। भगवान पार्श्वनाथ : पाश्चात्य और पौर्वात्य सभी मूर्धन्य मनीषी भगवान् पार्श्व को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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