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________________ १०० जैन कथा साहित्य की विकास यात्र के अर्थ में व्यवहृत होता है, पर ज्ञाताधर्मकथा में 'वाणिय' शब्द समुद्री यात्री के लिए प्रयुक्त हुआ है । आगम साहित्य में व धर्मकथानुयोग में अनेक स्थलों पर समुद्र यात्रा का निरूपण है । आवश्यक चूर्णि से यह पता चलता है कि दक्षिण सदुरा से सुराष्ट्र में जहाज चलते थे । समुद्र यात्रा के लिए वायु का अनुकूल होना आवश्यक माना गया है । निर्यामकों को समुद्री हवा के बारे में कुशल होना आवश्यक माना गया है । समुद्र में "कालियावात" न चलने पर और साथ ही गर्भज वायु के चलने पर जहाज सकुशल बन्दरगाहों पर पहुँच जाते थे । 'कालियावात' यानी तूफानों में जहाजों को डूबने का अत्यधिक खतरा रहता था । उस युग में समुद्र यात्रा निर्विघ्न नहीं थी । 1 जहाज आज की भाँति दोनों प्रकार के होते थे - चढ़ने योग्य और माल ढोने योग्य जो जहाज व्यापार के लिए जाते थे, उनमें जो माल भरा जाता था, वह १. गणिम - सुपारी, नारियल आदि जो गिन करके भरा जाता था । २. धरिम - शवकर आदि जिसे तोलकर भरते थे । ३. मेय- चावल, घी आदि जो पाली आदि से मापकर दिया जाता था । ४. परिच्छेद्य - जिसे केवल आँखों से जाँचकर देते थे जैसे - कपड़ा, हीरे पन्ने, माणिक मोती आदि जवाहरात | " बन्दरगाह तक व्यापारी लोग हाथी, घोड़ा, शकट तथा गाड़ियों पर बैठकर पहुँचते थे । विविध भाषाओं का परिज्ञान न होने पर लोग संकेतों से काम लेते थे। जब तक सौदा पूरा नहीं होता वहाँ तक लोग माल को ढँक कर रखते थे । उत्तराध्ययन की टीका के अनुसार गुप्तकाल में भारत का ईरान के साथ अत्यन्त मधुर सम्बन्ध था । शंख, चन्दन, अगर तगर, रत्न आदि भारत से ईरान में जाते थे और ईरान से मजीठ, स्वर्ण, चाँदी, मूँगे, १. णायाधम्मकहा, अध्य० ८, ९, १७. २. आवश्यकचूणि, पृ० ७०६. ३. आवश्यकचूर्णि पृ० ६६. ४. णायाधम्मकहा, अध्ययन है. ५. उपासकदशांग सूत्र ५. ६. ( क ) णायाधम्मकहा, अध्ययन ८,६,१७. (ख) निशीथचूर्णि ५६३२. ७. आवश्यकचूर्णि, पृ० ४२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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