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उत्तम पुरुषों की कथाएँ ६६ कर्म माना है। चित्र मुख्य रूप से भित्तियों पर और पट्ट फलक पर बनाये जाते थे। चित्र-सभायें उस युग में राजाओं के लिए अत्यन्त गर्व की वस्तु होती थीं। चित्र सभाओं में सैकड़ों खम्भे होते थे।
प्रस्तुत कथा में कुछ अवान्तर कथायें भी हैं । चोक्खा परिवाजिका राजा जितशत्रु के दरबार में पहुँचती है । जितशत्र को अपने अन्तःपुर पर बड़ा गर्व था । वह सोचता था कि मेरे अन्तःपुर के सदृश सुन्दरियाँ अन्यत्र कहीं पर भी नहीं हैं । विश्व का सम्पूर्ण सौन्दर्य मेरे अन्तःपुर में सिमटा हुआ है, अतः वह अभिमान के साथ परिव्राजिका से बोला-आप तो देशविदेशों में घूमती हैं। क्या आपने मेरे अन्तःपुर सदृश्य अन्य अन्तःपुर देखा है । परिव्राजिका ने मुस्कराते हुए कहा-तुम तो कूप-मण्डूक सदृश हो; और वह कूप-मण्डूक की कथा सुनाती है । कथाओं में समुद्र यात्राएँ :
प्रस्तुत कथानक में अरणक श्रावक की सुदृढ़ धर्म-श्रद्धा का भी उल्लेख है । वणिक् लोग मूल धन की रक्षा करते हुए धनोपार्जन करते थे। कितने ही व्यापारी एक स्थान पर दुकान लगाकर व्यापार करते थे और कितने ही व्यापारी बिना दुकान लगाये इधर-उधर घूम-फिरकर व्यापार करते थे। निशीथचूर्णि' में 'समुद्द जाणी' शब्द प्राप्त होता है, जिसका अर्थ है-समुद्र यात्री । ज्ञातृधर्मकथा' में अनेक स्थलों पर 'पोत पट्टन' और 'जल पत्तन' शब्द आये हैं, जो समुद्री बन्दरगाह के सूचक हैं, जहाँ पर विदेशों से माल उतरता था और देशी माल का वहाँ से निर्यात होता था। आचारांग और उत्तराध्ययन' में नाव और पोत शब्द भी प्राप्त होते हैं । पोतवह शब्द जहाज का वाचक है । आधुनिक युग में 'वाणिय' शब्द सामान्य व्यापारी
२. निशीथचूणि ११/३५३२.
१. बृहत्कल्पभाष्य १/२४२६. ३. निशीथभाष्य १६/५७५०, की चूणि . ४. समुद्दजाणीए चेव णावए ५. णायाधम्मकहा, अध्य० ८वाँ ७. उत्तराध्ययन, अध्य० २३. ८. णायाधम्मकहा, अध्य०८, ९, १७.
-निशीथचूणि ६. आचारांग, ३,२. .
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