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हद
जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
पीछे पागल बने हुए छहों राजाओं को विशुद्ध सदाचार का मार्ग बताया है । जो शरीर ऊपर से चमक-दमक रहा है, जिसकी चमक-दमक से उसके प्रति आकर्षण पैदा होता है, उस शरीर में रही हुई अपार गन्दगी को बताकर राजाओं का हृदय परिवर्तन किया गया है । बौद्ध साहित्य में भिक्षुणी शुभा का एक प्रसंग है । शुभा का सौन्दर्य निराला था । एक कामुक व्यक्ति उसके सौन्दर्य पर मुग्ध हो गया । उस कामुक व्यक्ति ने कहा- तुम्हारे नेत्र कितने सुन्दर और आकर्षक हैं कि उनको पाये बिना मुझे चैन नहीं पड़ेगा । भिक्षुणी ने अपने शील की रक्षा के लिए तीक्ष्ण नाखूनों से अपने नेत्र निकाल कर उसके हाथ में दे दिये और उस कामुक व्यक्ति से कहा- जिन नेत्रों पर तुम मुग्ध हो, वे नेत्र तुम्हें समर्पित कर रही | किन्तु उस कथा से भी मल्ली भगवती की कथा अधिक आकर्षक और प्रभावशाली है ।
रूपक की भाषा में यदि कहा जाये तो वे छहों राजा काम, क्रोध, मद, मोह आदि षट् रिपुओं के रूप में हैं । सभी धर्म और सम्प्रदायों ने षट् रिपुओं को जीतने पर बल दिया है । उन रिपुओं को कला से ही जीता जा सकता है । मल्ली भगवती की तरह साधक उन रिपुओं पर विजय वैजयन्ती फहरा सकता है ।
प्रस्तुत कथा में उत्कृष्ट चित्रकला का रूप भी देखने को मिलता है । प्राचीन भारत में चित्रकला का पर्याप्त विकास हुआ था । चित्रों को बनाने के लिए चित्रकार अपनी कूँची और विविध प्रकार के रंगों का उपयोग करता था । चित्रकार सर्वप्रथम भूमि को तैयार करता फिर उसको सजातासंवारता | मल्ली भगवती के भ्राता मल्लदत्त कुमार ने हाव-भाव, विलास और शृंगार चेष्टाओं से युक्त एक चित्र सभा बनवाई थी । चित्रकार श्रेष्ठतम चित्र बनाने में संलग्न हो गये। उनमें एक चित्रकार अद्भुत प्रतिभा का धनी था । वह द्विपद, चतुष्पद, अपद [ वृक्ष आदि ] के किसी एक हिस्से को निहार कर उसके सम्पूर्ण रूप को चित्रित कर देता था । राजा-महाराजा और श्र ेष्ठी गणों को चित्र कला अत्यन्त प्रिय थी । वे विविध प्रकार की चित्र - शालायें बनवाते थे ।
बृहत्कल्पभाष्य में आचार्य संघदासगणि ने चित्र कर्म के निर्दोष और सदोष ये दो प्रकार बताये हैं । वृक्ष, पर्वत, नदी, समुद्र, भवन, वल्ली, लता वितान, पूर्ण कलश, स्वस्तिक, आदि मांगलिक पदार्थों का आलेखन निर्दोष चित्र कर्म माना है और स्त्रियों के शृंगार आदि आलेखन को सदोष चित्र
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