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________________ उत्तम पुरुषों की कथाएँ ६७ भगवती ही खड़ी है । उस पुतली के सिर पर एक छिद्र बनवाया और पद्म पत्र की तरह उसका ढक्कन निर्माण करवाकर प्रतिदिन अपने भोजन के बाद एक कवल उस पतली में डालने लगी । वह अन्न प्रतिदिन अन्दर ही अन्दर सड़ने लगा, जिससे दुसह्य दुर्गन्ध पैदा हुई । छहों मित्र राजाओं ने मल्ली भगवती के रूप की प्रशंसा सूनी तो उन सबने उसे अपनी-अपनी पत्नी बनाने के लिए कुम्भ राजा के पास दूत प्रेषित किये । छहों दूतों को एक साथ आया हुआ देखकर महाराजा कम्भ यह निर्णय न ले सके कि किसके साथ राजकुमारी का पाणिग्रहण कराया जाय, अतः छहों दूतों को निषेध कर दिया। छहों राजकमारों के दूतों ने अपने-अपने राजाओं को निवेदन किया तथा वे छहों सेना से सुसज्जित होकर आक्रमण करने हेतु मिथिला की ओर बढ़े जिससे कुम्भ राजा अत्यन्त चिन्तित हुआ । मल्ली भगवती के संकेत से छह राजाओं को पृथक-पृथक् गर्भगृहों में ठहरा दिया गया । छहों ने मल्ली भगवती की प्रतिकृति देखी, वे देखते ही उस पर मन्त्र-मुग्ध हो गये । मल्ली भगवती जाल-गृह में से अपनी कनकमयी प्रतिकृति के पास आई और पद्म कमल के ढक्कन को पुतली के सिर पर से हटा दिया । ढक्कन हटते ही असह्य और भीषण दुर्गन्ध निकली, जिससे सारा वायुमण्डल दुसह्य दुर्गन्ध से व्याप्त हो गया। छहों राजाओं ने अपने उत्तरीय वस्त्रों से नाक को ढक लिया और मुख को मोड़कर बैठ गये। राजकुमारी मल्ली भगवती ने उन सभी राजाओं को सम्बोधित कर कहा-आप सभी मुख को मोड़कर और नाक आदि ढक कर क्यों बैठे हैं ? इस स्वर्णमूर्ति में प्रतिदिन एक-एक ग्रास श्रेष्ठ भोजन का डाला गया हैं । जव एक ग्रास से भी इतनी भयंकर सड़ान पैदा हुई है तो हम इस शरीर में प्रतिदिन कितने ग्रास डालते हैं ? यह शरीर मल-मूत्र, श्लेष्म, रज आदि अशुचियों का भण्डार है, इसमें आप क्यों आसक्त हो रहे हैं ? स्मरण करो अपने पूर्वभव को ! हम पूर्वभव में मित्र थे। साधना करते हुए मैंने माया का सेवन किया, जिसके कारण मैंने स्त्रीनामकर्म का बन्धन किया। छहों राजाओं को जाति-स्मरण ज्ञान हआ और वे प्रतिबुद्ध हुए। तीन सौ पुरुष और तीन सौ महिलाओं के साथ मल्ली भगवती ने प्रव्रज्या ग्रहण की। उसी दिन उन्हें केवलज्ञान एवं केवलदर्शन हो गया। एक प्रहर से कुछ अधिक समय तक वे छद्मस्थ अवस्था में रहे । केवलज्ञान होने पर छहों राजा भी उनके प्रथम उपदेश को सुनकर दीक्षित हुए। कथा का कथ्य प्रस्तुत कथा में भोग के दलदल में फँसने वाले, रूप और लाबण्य के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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