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________________ ६६ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा ये विचार उद्बुद्ध हुए कि मैं गृहस्थाश्रम में भी इनसे बढ़कर था । यदि इस समय समान साधना की ती इन्हीं के समान भविष्य में रहना पड़ेगा। अत: महाबल ने विशिष्ट तप की साधना प्रारम्भ की । यदि छहों साथी षष्ठभक्त तप करते तो महाबल अष्टमभक्त तप करते, यदि अन्य साथी अष्टमभक्त तप करते तो वे दशम भक्त तप करते । साथी मुनियों के पूछने पर शारीरिक और मानसिक कारण बताकर वे पारणा नहीं करते । माया के कारण उन्होंने स्त्रीनामकर्म का अनुबन्धन किया। स्त्रीवेद का बन्ध कर लेने के पश्चात् सभी प्रकार के शल्यों से मुक्त होकर निष्काम भाव से उग्र तप के साथ तीर्थंकर नाम गोत्र का बन्ध किया। सातों ही श्रमणों ने भिक्ष की द्वादश प्रतिमाओं को धारण किया, लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तथा महासिंहनिष्क्रीडित आदि विविध प्रकार की तपस्याएँ करने के बाद अन्त में पादपोपगमन संथारा कर स्वर्गस्थ हुए । महाबल जीव बत्तीस सागर की उत्कृष्ट स्थिति सहित अनुत्तर विमान में पैदा हुआ और अन्य छहों मुनि बत्तीस सागर से कुछ कम स्थिति वाले देव बने । __वहाँ से च्युत होकर महाबल का जीव मिथिला नगरी में महाराजा कुम्भ की महारानी प्रभावती की कुक्षि से मल्ली भगवती के रूप में उत्पन्न हुआ और उनके पूर्वभव के छह मित्र जिनमें से "अचल' का जीव कौशल की राजधानी अयोध्या में 'प्रतिबुद्ध' नामक राजकुमार हुआ । 'धारण' का जीव अंग की राजधानी चम्पा में 'चन्द्रछाय' नामक राजकुमार, 'अभिचन्द्र का जीव काशी की राजधानी वाराणसी में 'शंख' राजकुमार बना । 'पूरण" का जीव कुणाला की राजधानी कुणाला नगरी में 'रुक्मी' नामक राजकुमार हुआ । 'वसु' का जीव पुरु की राजधानी हस्तिनापुर में 'अदीनशत्र' नामक राजकुमार के रूप में पैदा हआ तथा वैश्रमण" का जीव पांचाल की राजधानी काम्पिल्यपुर में 'जितशत्र' राजा बना। द्वितीया के चन्द्रमा की भाँति मल्ली कुमारी दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। उसका रूप अद्भुत था। जो भी उसे निहारता, वह ठगा-सा रह जाता । राजकुमारी ने अपने विशिष्ट ज्ञान से देखा कि मेरे छहों मित्र मेरे रूप की ख्याति सुनकर मेरे से विवाह करने के लिए तत्पर होंगे, अतः उन्हें प्रतिबोध देने हेतु उसने विशिष्ट कलाकारों को बुलवाया और अशोक वाटिका में मोहन गृह का निर्माण करवाया, छह गर्भगृहों के बीच एक जाल-गृह का निर्माण करवाया। उस जाल-गृह में मणि पीठिका पर अपने ही समान स्वर्ण पुतली बनवाई, उस पुतली को देखने वाला यही समझता कि साक्षात् मल्ली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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