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________________ उत्तम पुरुषों की कथाएँ ६५ और विविध रूप में उनका चित्रण किया है । विस्तार भय से हम यहाँ उन सभी के विचार उट्ट ं कित नहीं कर रहे हैं, विशेष जिज्ञासुजन लेखक का 'ऋषभदेव : एक परिशीलन' ग्रन्थ अवलोकन करें । ऋषभदेव का निर्वाण उत्सव : प्रथम धर्मोत्सव जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में जन्मोत्सव का जैसे विस्तार से निरूपण हुआ है, वैसे ही उनके निर्वाण का भी विस्तार से निरूपण है। निर्वाण महोत्सव मनाने के लिए चौंसठ इन्द्र अपने विशाल परिवार के साथ वहाँ उपस्थित होते हैं । शक्र ऋषभदेव के शरीर को क्षीरोदक से स्नान करवाता है, अन्य देव गण, गणधर तथा अन्य अन्तेवासी शिष्यों के पार्थिव शरीरों को क्षीरोदक से स्नान करवाते हैं फिर गोशीर्ष चन्दन का विलेपन करते हैं। तीन प्रकार की शिविकायें तैयार करते हैं। एक में ऋषभदेव को, दूसरी में गणधरों को और तीसरी शिसिका में सामान्य साधुओं को रखते हैं । "जय-जय नन्दा, जय-जय भद्दा" के दिव्य आघोष से आकाश को गुंजायमान करते हुए तीन चिताओं में तीर्थंकर, गणधर तथा सामान्य साधुओं को स्थापित करते हैं । शक्र की आज्ञा से अग्निकुमार देव ने अग्नि की विकुर्वणा की और वायुकुमार देव ने अग्नि को प्रज्वलित किया । गोशीर्ष चन्दन की बनी हुई चितायें जलने लगीं । जब सभी के पार्थिव शरीर जल गये तब श ेन्द्र की आज्ञा से मेघकुमार देव ने क्षीरोदक से उन चिताओं को ठण्डा किया। सभी इन्द्र अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार प्रभु की डाढ़ों और दाँतों को तथा शेष देवों ने प्रभु की अस्थियों को ग्रहण किया । तीनों चिताओं पर स्मृति चिन्ह बनाकर वे देवेन्द्र अपने परिवार के साथ नन्दीश्वर द्वीप गये और refer महोत्सव मनाया। इस प्रकार भगवान् ऋषभदेव का ओजस्वी, तेजस्वी व्यक्तित्व एवं कृतित्व अत्यन्त प्रेरणादायी है । यहाँ पर उनके जीवन के कुछ बिन्दुओं पर चिन्तन किया है और ये ही बिन्दु आगम साहित्य के पश्चात् निर्मित साहित्य के उपजीव्य रहे हैं । मल्ली भगवती : अध्यात्म क्षेत्र में नारी का चरम उत्कर्ष मल्ली भगवती के चरित्र का मूल आधार ज्ञाताधर्मकथा ( सू० १ / ८ ) है । मल्ली भगवती का जीव अपने तीसरे पूर्वभव में 'महाबल' नामक राजा बना था । वह छह स्नेही साथियों के साथ श्रमणधर्म में दीक्षित हुआ और साथ ही समान तप करने का निश्चय किया । पर महाबल के अन्तर्मानस में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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