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________________ उत्तम पुरुषों की कथाएँ ६१ इन प्रमाणों के आलोक में यह स्पष्ट है कि भगवान् ऋषभदेव का पारणा अक्षयतृतीया के दिन हुआ। भगवान ऋषभ एक वर्ष तक इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदूष्य वस्त्र को धारण करते रहे। उसके पश्चात् वे अचेलक हो गये। साधनाकाल में देव सम्बन्धी, मनुष्यसम्बन्धी और तिर्यंचसम्बन्धी जो भी उपसर्ग आये, उन उपसर्गों को उन्होंने बहुत ही शान्त भाव से सहन किया। वे अपने साधनाकाल में व्युत्सर्ग काय और त्यक्त देह की भाँति रहे। श्रीमद्भागवत में श्रमण बनने के बाद ऋषभदेव को अज्ञानी लोगों ने दारुण कष्ट दिये, यह उल्लेख है, पर हमारी दृष्टि से उस युग के मानव इतने क्रूर नहीं थे जो ऋषभ को इतना कष्ट देते । भगवान् के जीवन और साधना का शब्द-चित्र विविध उपमाओं के द्वारा शास्त्रकार ने प्रस्तुत किया है। एक सहस्र वर्ष के पश्चात् भगवान् को केवलज्ञान तथा केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। जिसे जैनागमों में केवलज्ञान कहा है, उसे बौद्ध ग्रन्थों में 'प्रज्ञा', सांख्य-योग में 'विवेक-ख्याति' कहा है। उन्होंने तीर्थ की स्थापना की। उनके चौरासी गण तथा चौरासी गणधर हुए। वैदिक पुराणों में भी भगवान ऋषभदेव को दस विध धर्म का प्रवर्तक माना है। तृतीय आरे के तीन वर्ष साढ़े आठ मास अवशेष रहने पर भगवान ऋषभदेव दस हजार श्रमणों के साथ अष्टापद पर्वत पर आरूढ़ हुए। चतुर्दश भक्त से आत्मा को भावित करते हुए अभिजित नक्षत्र के योग में पर्यंकासन से स्थित शुक्लध्यान के द्वारा अघातिया कर्मों को नष्ट कर सदा-सर्वदा के लिए अक्षर-अजर अमर पद को प्राप्त हुए, इसे जैन परिभाषा में 'निर्वाण' या 'परिनिर्वाण' कहा है। शिवपुराण में अष्टापद पर्वत के स्थान पर कैलाश पर्वत का उल्लेख किया है। १. उसभे णं अरहा कोसलिए संबच्छर-साहियं चीवरधारी होत्था, तेण परं अचेलए। -धम्म कहाणुओगे, पढम खन्धे, पृ० २०. २. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार १, सूत्र ३१. ३. भागवत ५/५/३०/५६४. ४. विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः । - योग सूत्र २/२६. ५. चुलसीतीए जिणवरो, समण सहस्से हिं परिवुडो भगवं। दसहिं सहस्सेहि समं, निव्वाणमणुत्तरं पत्तो ।।-आवश्यकचूणि २२१. ६. कैलाशे पर्वते रम्य, वृषभोऽयं जिनेश्वरः । चकार स्वावतारं च, सर्वज्ञः सर्वगः शिवः ।। -शिवपुराण ५६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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