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________________ ८६ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा ऋषभदेव जानते थे कि यह एकान्त स्निग्ध काल है, इस समय अग्नि उत्पन्न नहीं हो सकती। अग्नि की उत्पत्ति के लिए एकान्त स्निग्ध और एकान्त रूक्ष ये दोनों ही काल उपयुक्त नहीं हैं। समय द्रत गति से आगे बढ़ रहा था । वृक्षों के परस्पर टकराने से अग्नि उत्पन्न हुई । मानवों ने जब अग्नि देखी तो रत्न राशि समझकर उसे हाथ में लेना चाहा पर हाथ जल गये। उन्होंने ऋषभदेव से निवेदन किया कि कोई भूत जंगल में पैदा हुआ है, जो हमारे को कष्ट दे रहा है । ऋषभदेव ने कहा-स्निग्ध-रूक्ष काल आ गयाहै, इसलिए अब तुम्हारी समस्या का स्थाई समाधान हो जायेगा। उन्होंने मिट्टी का पात्र बनाकर एवं अन्नादि पकाकर खाने की सलाह दी । यही कारण है कि अथर्ववेद के ऋषभसूक्त में ऋषभदेव के अन्य विशेषणों के साथ 'जातवेदस्' [अग्नि के रूप में रतुति की है। वहाँ लिखा है-'रक्षा करने वाला, सभी को अपने भीतर रखने वाला, रिथर स्वभावी, अन्नवान ऋषभ संसार के उदर का परिपोषण करता है । उस दाता ऋषभ को परम ऐश्वर्य के लिए विद्वानों के जाने योग्य मार्गों से बड़े ज्ञान वाला, अग्नि के समान तेजस्वी पुरुष प्राप्त करें।' शिल्पों में सर्वप्रथम कुम्भकार का शिल्प प्रचलित हुआ । उसके पश्चात् भवन-निर्माण करने की कला सिखाई । मनोरंजन के लिए चित्र शिल्प का आविष्कार हुआ। वस्त्र निर्माण की शिक्षा दी। बाल, नाखून आदि की अभिवृद्धि से शरीर अभद्र प्रतीत होने लगा तब नापित शिल्प का प्रशिक्षण दिया। इन पाँच मुख्य शिल्पों के बीस-बीस अवान्तर भेद हुए, इस तरह कुल सौ शिल्प विकसित हुए। आचार्य जिनसेन ने ऋषभदेव के समय प्रचलित छह आजीविकाओं के साधनों का उल्लेख किया है। जो निम्न प्रकार से हैं : (१) असि-अर्थात् सैनिक वृत्ति (२) मषि-लिपि विद्या (३) कृषिखेती का कार्य (४) विद्या-अध्यापन या शास्त्रोपदेश का कार्य (५) वाणिज्यव्यापार, व्यवसाय (६) शिल्प-कला कौशल। उस समय के मानवों को 'षट्कर्म जीवीनाम्' कहा गया है। १. पुमानन्तर्वान्त्स्थविरः पय स्वान् वसोः कबन्धमृषभो विभर्ति । तमिन्द्राय पथिभिर्देवयानह तमग्निर्वहतु जातवेदाः ।। - अथर्ववेद-६/४/३ २. असिमंषि: कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च । कर्माणीमानि षोढा स्युः प्रजाजीवनहेतवः॥ -आदिपुराण १६/१७६. ३. आदिपुराण, ३६/१४३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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