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________________ उत्तम पुरुषों की कथाएँ ८५ सेना का संगठन किया । अपराधों के निरोध हेतु साम, दाम, दण्ड और भेद नीति का प्रचलन किया। साथ ही चार प्रकार की दण्ड व्यवस्था भी बनाई। दण्डनीति १. परिभास-कुछ समय के लिए अपराधी को आक्रोशपूर्ण शब्दों में नजरबन्द रहने का दण्ड देना। २. मण्डलबन्ध-सीमित क्षेत्र में रहने का दण्ड प्रदान करना। ३. चारक-बन्दीगृह में बन्द रहने का दण्ड देना। ४. छविच्छेद-कर आदि अंगों का छेदन करना । आचार्य उभयदेव का अभिमत है-परिभास और मण्डलबन्ध ये दो नीतियाँ ऋषभदेव के समय चली तथा चारक और छविच्छेद ये दो नीतियाँ भरत के समय चली। आचार्य भद्रबाह और आचार्य मलयगिरि की दृष्टि से बन्ध, (बेड़ी का प्रयोग) घात, ये दो दण्ड ऋषभ के समय में प्रारम्भ हुए। मृत्युदण्ड का प्रारम्भ भरत के समय में हुआ । जिनसेन' आचार्य ने लिखा है-वध, बन्धन आदि शारीरिक दण्ड भरत के समय में प्रचलित हुए। जीवन संरक्षिणी कलाओं का विकास ऋषभदेव के समय कल्पवृक्ष पूर्णतया नष्ट हो चुके थे। मानव स्वतः पैदा होने वाले, कन्द, मूल, पत्र, पुष्प, फल आदि का उपयोग करते थे । साथ ही चावल, गेहूँ, मूग, चना आदि का भी उपयोग करते थे। पकाने के साधन के अभाव में अपक्व अन्न दुष्पाच्य हो गया तो वे लोग ऋषभदेव के पास पहुँचे। ऋषभ ने समस्या का समाधान करते हुए कहा-पहले छिलके उतार लें और फिर मल कर खायें। कुछ समय के बाद जब वह भी दुष्पाच्य हो गया तो पानी में भिगोकर मुट्ठी व बगल में रखकर खाने की सलाह दी, पर यह भी स्थाई समाधान नहीं था। १. आवश्यकचूणि-१५६. २. स्थानांग वृत्ति-७/३/५५७. ३. निगडाइजमो बन्धोधातो दण्डादितालणया। -आवश्यकनियुक्ति गा० २१७. ४. आवश्यकमलयगिरी वृत्ति-१६६ / २०२. ५. शरीरदण्डनञ्चैव वधबंधादिलक्षणम् । नणां प्रबलदोषाणां भरतेन नियोजितम ॥ -महापराण ३/२१६/६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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