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________________ ८० | सद्धा परम दुल्लहा इसी लिए निश्चयनय से सम्यग्दर्शन को स्वानुभूति रूप बताया गया है। दीर्घदृष्टि से सोचा जाय तो सम्यग्दर्शन (सुश्रद्धा) को मोक्ष का प्रमुख मार्ग बताया गया है । मोक्ष या बन्धन दोनों आत्मा से ही सम्बन्धित हैं, क्योंकि सम्यग्दर्शन आत्मा का ही अमूर्तिक गुण है। वह न तो इन्द्रियों का धर्म है, न ही शरीर का और न किसो जड़ पदार्थ का है; वह आत्मा (जीव) का ही धर्म है। इसीलिए उपासकाध्ययन में तथा योगशास्त्र में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय को आत्मरूप अथवा आत्मा के साथ तादात्म्य रूप बताया गया है। तात्पर्य यह है कि निश्चयनय के अनुसार जो सम्यश्रद्धा (दर्शन) है, वही आत्मा है, जो सम्यग्ज्ञान है, वही आत्मा है और जो सम्यक्चारित्र है, वह भी आत्मा है । साधक को आत्मा ही अपनी साधना द्वारा स्वानुभूति, दृढश्रद्धा, प्रतीति, विनिश्चिति या उपलब्धि करती है। विश्व के सभी अध्यात्मवादी दर्शनों ने आत्मा (जीव) को अन्य सभी तत्वों में प्रधान तत्व माना है। आत्मा को वास्तविक अनभूति या प्रतीति होने पर ही उसके प्रतिपक्षी जड़ (अजीव) को पहचाना जा सकता है। आत्मस्वरूप की प्रतोति एवं अनुभूति होने पर ही आत्मा से भिन्न कर्मादिजन्य आस्रव एवं बन्ध से मुक्त हुआ या रहा जा सकता है तथा संवर और निर्जरा की साधना की जा सकती है । आत्मस्वरूप का विनिश्चिय, प्रतोति या अनुभव नहीं हुआ और आत्मिक शक्तियों की पहचान नहीं हुई तो बन्धनों से कैसे मुक्त हुआ जा सकेगा और मोक्ष के लिए पराक्रम कैसे किया जाएगा? निष्कर्ष यह है कि जीव के अतिरिक्त १ सम्यक्त्वं स्वानुभूतिः स्यात् सा चेच्छुद्धनयात्मिका ।। ___-पंचाध्यायी (उत्तरार्द्ध) श्लो. ४/३ २ (क) आत्मैव दर्शन-ज्ञान-चारित्राण्यथवायतेः । यत्तदात्मक एवैष शरीरमधितिष्ठति ।। -योगशास्त्र प्र. ४, श्लो. २ (ख) अक्षाज्ज्ञानं रुचिर्मोहाद्देहावृत्तं च नास्ति यत् । आत्मन्यस्मिन् शिवीभूते, तस्मादात्मैव तत् त्रयम् ।। -उपासकाध्ययन कल्प २१, श्लो. २४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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