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सम्यक्श्रद्धा का निश्चय-स्वरूष | ७६
सहसा ग्रहण नहीं कर सकेगा। कोई व्यक्ति वास्तव में सम्यक्चद्धा सम्पन्न है, इसका पता साधारण व्यक्ति को प्रारंभ में तो उसके बाह्य व्यवहार पर से ही लग सकेगा। किसी की आत्मा सम्यक्श्रद्धायुक्त है,इसका ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञानी के सिवाय सहसा अन्य को होना कठिन है। यही कारण है कि आचार्यों ने सम्यग्दर्शन (सम्यक्श्रद्धा) का स्वरूप निश्चय और व्यवहार दोनों नयों की दृष्टि से बताया है।
निश्चय सम्यग्दर्शन होने पर ही व्यवहार सम्यग्दर्शन सफल देव, गुरु और धर्म के प्रति अथवा जिनोक्त सात या नौ तत्व के प्रति श्रद्धान रूप जो व्यवहार-सम्यग्दर्शन (सम्यकश्रद्धा) का स्वरूप बताया गया है, वह तभी सच्चे माने में सफल हो सकता है, जब आत्मा के प्रति गाढ़ श्रद्धा, रुचि या सुदढ प्रतीति हो, अर्थात् वे श्रद्धादि गुण स्वानुभूति से युक्त हों। इसी तथ्य को 'पंचाध्यायी में इस प्रकार उजागर किया गया है
स्वानुभूति-सनाथाश्चेत् सन्ति श्रद्धादयो गुणाः । स्वानुभूति विनाऽऽभासा, नार्थाच्छ्रद्धादयो गुणाः ।। विना स्वानुभूति तु या श्रद्धा श्रुतमात्रतः ।
तत्त्वार्थाऽनुगताऽप्यर्थाच्छद्धा, नानुपलब्धितः ।। अर्थात्-श्रद्धा, रुचि,प्रतीति, विश्वास आदि गुण तभी सार्थक होते हैं, जब वे स्वानुभव से युक्त हों। अर्थात् आत्मा के प्रति अपने प्रत्यक्ष अनु भव से मुक्त हो, तभी देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा आदि सम्यक्श्रद्धा होंगे । स्वानुभूति के बिना केवल शास्त्रों से, बौद्धिक तर्क-वितर्क एवं युक्ति से अथवा गुरुजनों के उपदेश श्रवण से जो श्रद्धा होती है, वह तत्वार्थ के अनुकुल होती हुई भी वस्तुतः शुद्ध आत्मा की उपलब्धि से रहित होने से सम्यक्श्रद्धा नहीं हो सकतो ।
१ शुद्ध यदाऽऽत्मनो रूपं निश्चयेनाऽनुभूयते । व्यवहारो भिदा द्वाराऽनुभावयति तत् परम्॥
-अध्यात्मसार प्र. ६, अ. १८, श्लो. १० २ पंचाध्यायो (उत्तरार्द्ध) श्लोक ४१५, ४२१
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