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सम्यश्रद्धा का निश्चय-स्वरूप
व्यावहारिक स्वरूप पर्याप्त नहीं किसी भी मनुष्य के बाह्य व्यवहार, उसकी आकृति, उसके शरीर के डील-डौल, रूप-रंग अथवा उसके चेहरे, नेत्र, मुख आदि से उसके अन्तरंग का, अन्तर्हृदय का पता नहीं लगता । बाह्य क्रियाओं, चेष्टाओं, अनुष्ठानों तथा साधना के क्रियाकाण्डों, वेशों आदि पर से किसी व्यक्ति को अन्तरात्मा को शुद्ध पवित्र और मुमुक्ष समझ लेने में भी मनुष्य बहुधा भ्रांति का शिकार हो जाता है। इसी प्रकार सम्यकश्रद्धा (सम्यग्दर्शन) का भी केवल बाह्य स्वरूप जान लेने, समझ लेने से एवं उस पर श्रद्धा एवं बौद्धिक प्रतीति कर लेने मात्र से व्यक्ति के जीवन में मुमुक्षा, सम्यग्दृष्टि, आत्माथिता आगई, ऐसा समझ लेना भूल होगी। इसीलिए सम्यश्रद्धा (सम्यग्दर्शन) के व्यावहारिक स्वरूप का दो प्रकार से निरूपण करने के बाद अब हम उसके निश्चय स्वरूप का वर्णन करेंगे।
जैनदर्शन की यह विशेषता रही है कि वह आध्यात्मिक जीवन की प्रत्येक साधना की केवल बाह्य दृष्टि से ही प्ररूपणा करके नहीं रह जाता उसका अन्तरंग दृष्टि से भी विवेचन विश्लेषण करता है। किसी भी वस्तु के केवल बाह्य रूप को जान लेने से उस वस्तु का वास्तविक रूप = मूलरूप नहीं जाना जा सकता। और यदि केवल अन्तरंग दृष्टि से ही वस्तु का स्वरूप बताया जाए तो उसे साधारण व्यक्ति अथवा अल्पज्ञ छद्मस्थ जन
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