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सम्यकश्रद्धा का निश्चय -स्वरूप | ८१
जितन भी तत्त्वभूत पदार्थ हैं, वे सब एक या दूसरे प्रकार से जीव से ही सम्बन्धित हैं । जीव का अस्तित्व है तो उनका भी अस्तित्व है । इसीलिए निश्चयनय की दृष्टि से सम्यक् श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) का लक्षण बताया गया -- आत्मा के स्वरूप की अनुभूति, विनिश्चिति और दृढ़श्रद्धा ।
जब जीव ( आत्मा ) तत्त्व ही सर्वश्रेष्ठ प्रधान तत्त्व है तब फलि - तार्थ यही निकलता है कि तत्त्व एकमात्र जीव ( आत्मा ) ही है, शेष आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष आदि सब उसके ही परिवार हैं । समयसार में जो भूयत्थेणाभिगदा...' अर्थात् - सम्यग्दर्शन का लक्षण - शुद्ध ( निश्चय) नय से अभिगत जीवादि नौ (या सात ) तत्वों का श्रद्धानरूप बताया गया है, उसका रहस्य भी यही है कि वहाँ जीव (आत्मा) का अजीवादि तत्वों के साथ एकत्व प्रकट किया गया है । इस प्रकार शुद्ध tय की अपेक्षा से जीवादि नौ तत्वों को जानने से आत्मा की अनुभूति होती है । इस अनुभूति का कारण है - वहाँ विकारी होने योग्य और विकारकर्ता दोनों ही पुण्य हैं तथा दोनों ही पाप हैं। आस्रव, संवर, बन्ध और निर्जरा होने योग्य, तथैव क्रमशः आस्रवकर्ता, संवरकर्ता, बन्धकर्ता और निर्जराकर्ता चारों ही क्रमशः आस्रव, संवर, बन्ध, और निर्जरा हैं । और मोक्ष होने योग्य तथा मोक्षकर्ता दोनों जीव के विकार का हेतु अजीव है । यों नो तत्वों में से स्वभाव को छोड़कर स्वयं और पर भी एक (जीव ) द्रव्य की पर्याय के रूप में अनुभव करने पर भूतार्थ है । इस प्रकार प्रस्तुत नो तत्वों में भूतार्थनय से जीव के साथ एकत्व होने पर एक जीव तत्व ही प्रकाशमान होता है । आत्मख्याति टीका में यही बात कही है
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ही मोक्ष हैं । जीव द्रव्य के
'नव-तत्व-गतत्वेऽप्येकत्वं न मुञ्चति ।'
'जीव नवतत्वरूप में परिणमन करता हुआ भी एकत्व को अर्थात् - अपने मूल स्वभाव को नहीं छोड़ता ।'
१ तत्राऽप्यात्मानुभूतिः सा, विशिष्टं ज्ञानमात्मनः । सम्यक्त्वेनाऽविनाभूतमन्वयाद्
व्यतिरेकतः ।।
२ भूयत्येणाभिगदा जीवाऽजीवा य पुण्ण-पावं च । आसव-संवर णिज्जर-बंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥
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- पंचाध्यायी ( उ० ) श्लो. ४६३
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-समयसार गाथा १३
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