________________
सम्यक्श्रद्धा की दूसरी पाँख : देव गुरु-धर्म-श्रद्धान' | ७५ करना धर्म है, यज्ञ में हिंसा, हिंसा नहीं होतो, अमुक वर्ण का व्यक्ति किसी की चीज चुरा ले, या जबरन ले ले, अथवा अमुक की स्त्री को बहकाकर अपनी बना ले तो पाप या अधर्म नहीं है, अथवा विश्वमैत्री का पवित्र धर्म सन्देश भूलकर अपने माने हुए सम्प्रदाय या पंथ के अतिरिक्त दूसरे सम्प्रदाय वालों की निन्दा करना, उन पर मिथ्यादोषण करना, उन पर बलात् या भय प्रलोभन से बहकाकर अपने सम्प्रदाय या पंथ को स्वीकार करने के लिए विवश करना, दूसरे सम्प्रदाय या पंथ वालों को सहयोग, दान, सहायता या कष्टापहरण करना, धर्म विरुद्ध है । यहाँ तक कह दिया कि दूसरे सम्प्रदाय या पंथ के अनुयायियों को मारना-पीटना, सताना, दुःख या कष्ट में डालना धर्म की सेवा है । पर ये सब सद्धर्मविरुद्ध प्रवृत्तियाँ हैं । धर्म का मूल एवं व्यापक लक्षण आचार्य कुन्दकुन्द ने बताया--
वत्थु-सहावो धम्मो1 प्रत्येक वस्तु का अपना मुल स्वभाव धर्म है। मूल स्वभाव को मिटाया नहीं जा सकता । अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अचौर्य, अपरिग्रह, क्षमा, संयम आदि दशविध धर्म, अथवा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म या श्रुत चारित्र रूप धर्म-ये सब आत्मा के वास्तविक स्वभाव हैं । ये सब आत्मा के निजी गुणों-ज्ञान, दर्शन, आनन्द (सुख) और शक्ति (वीर्य) से संबन्धित
ho
धर्म का बाह्य लक्षण आचार्य हेमचन्द्र ने किया है
दुर्गतौ प्रपतत्प्राणि-धारणाद्धर्म उच्यते ।
संयमादि-दशविधः सर्वज्ञोक्तो विमुक्तये ॥2 'दुर्गति (नरक और तिर्यञ्चगति) में गिरते हुए जीवों को जो धारण करता है, बचाता है, वह धर्म कहलाता है। बशर्ते कि वह धर्म संयमादि दस प्रकार का और सर्वज्ञ वीतरागों द्वारा कथित हो क्योंकि वही मुक्ति की प्राप्ति कराने में सक्षम है।"
आचार्य समन्तभद्र के अनुसार तो एक मात्र मोक्ष प्राप्ति कराने वाला अर्थात् शुभाशुभ कर्मों से सर्वथा मुक्त कराने वाला जिनोक्त धर्म
१ समयसार २ योगशास्त्र, प्रकाश २/२१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org