________________
७६ ! सद्धा परम दुल्लहा ही वास्तविक धर्म है, जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप है। और उत्तम (आत्मिक परम) सुख को धारण करा देता है।
जिनोक्त धर्म को श्रद्धेय एवं उपादेय, इसलिए बताया कि अरिहन्त जिनेन्द्र राग-द्वोष से मुक्त हैं, पूर्ण ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनन्द और शक्ति से सम्पन्न हैं। राग, द्वष, मोह, कषाय एवं अज्ञान आदि विकार ही मिथ्या भाषण, पक्षपात आदि के कारण होते हैं, और ये कोई भी दोष वीतरागसर्वज्ञ में नहीं होते। उनके द्वारा प्ररूपित या उपदिष्ट धर्म या तत्व मिथ्या नहीं हो सकते ।
इसलिए सर्वज्ञ वीतराग अर्हन्त द्वारा प्ररूपित तत्व या धर्म मिथ्या नहीं हो सकता।
इसके विपरीत जो मिथ्यादृष्टि एवं रागी-द्वेषी पुरुषों द्वारा प्रवर्तित एवं हिंसादि दोषों से कलुषित धर्म है, वह धर्म या तत्व श्रद्ध य धर्म नहीं हो सकता; भले ही वह धर्म के नाम से प्रसिद्ध हो । जहाँ धर्म के नाम से धर्मान्धता, कट्टरता, छूआछूत, रंगभेद, उच्च-नीच भेद, घृणा आदि फैलते हों, वहाँ धर्म नहीं, अधर्म या पाप है । जबरन या प्रलोभन देकर धर्म परिवर्तन कराना धर्म-सेवा नहीं, न धर्म की सुरक्षा है। यह सब साम्प्रदायिकता एवं धर्मान्धता का परिणाम है। क्योंकि शुद्ध धर्म अन्तरात्मा में होता है, वह अन्दर में है; संप्रदाय बाहर की बात करता है। धर्म उपादान को महत्व देता है, सम्प्रदाय निमित्त को। धर्म बाहर से अन्दर की ओर, अशुद्धि से शुद्धि की ओर, दुःख से सुख की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर तथा विभाव से स्वभाव की ओर मनुष्य को लाता है, परन्तु सम्प्रदाय,ग्रन्थ, पन्थ, पर्वत, तीर्थ, नदी, अमुकवेष, क्रिया काण्ड आदि बाह्य निमित्तों को लेकर चलता है। इसी कारण संसार में घृणा और विद्वेष का बबंडर फैलता है। शुद्ध धर्म बाह्य निमित्तों, परभावों या दिभावों (राग द्वषकषायादि) को त्याग शुद्ध आत्मतत्व में-वीतराग भाव में स्थिर होना सिखलाता है। शुद्ध धर्म का जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के साथ सम्बन्ध है। ऐसा
१ सदर्शन-ज्ञान-चारित्रं धर्म धर्मेश्वरा विदुः ।......"यो धरति उत्तमे सुखे ।'
-रत्नकरण्डक श्रावकाचार २ वीतरागा हि सर्वज्ञा मिथ्या न ववते क्वचित् ।
यस्मात्तस्माद्वचस्तेषां तथ्यं भूतार्थदर्शकम् ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org