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________________ ७४ | सद्धा परम दुल्लहा सम्यक्श्रद्धा के मार्ग में आगे बढ़ने के लिए किसी सच्चे निःस्पृह, त्यागी, निग्रन्थ मार्गदर्शक का सहारा बहत जरूरी होता है। जैसे एक दीपक से हजारों दीपक प्रज्वलित हो सकते हैं, वैसे ही मार्गदर्शक सद्गुरु के सान्निध्य से हजारों श्रद्धालु अनुयायियों-शिष्यों में आत्मज्योति प्रज्वलित हो उठती है । फिर तो शिष्य या अनुयायी स्वयमेव सत्यपथ का प्रकाश पा जाता है । गुरु की सत्प्रेरणा से, सान्निध्य से, उनके प्रति श्रद्धाभक्ति एवं समर्पण से शिष्य को सम्यकमार्ग मिल जाता है, वह अन्तिम ध्येय (मोक्ष) की यात्रा पर स्वयं चल पड़ता है । गुरु उसे हाथ पकड़कर नहीं चलाता, उसे स्वयमेव ही सन्मार्ग में पुरुषार्थ करना पड़ता है । सच्चा गुरु अपने प्रति श्रद्धा रखने वाले को आदर्श-अर्हत्देव का मार्ग बता देते हैं, उसकी प्राप्ति की विधि और उपाय भी बताते हैं, समय-समय पर उसकी भूल सुधारते हैं, आलोचना-निन्दना-गर्हणा से उसकी आत्मशुद्धि कराकर आत्मविकास के सर्वोच्च शिखर पर चढ़ने के मार्ग की प्रेरणा कर देते हैं। गुरु सम्यक् दृष्टि प्रदान करते हैं, वह अपने आश्रित एवं पराधीन न बनाकर अनुयायी को स्वाश्रित एवं स्वनिर्भर बनाते हैं। ऐसे गुरु प्राथमिक भूमिका में श्रद्धा. स्पद होते हैं । सम्यग्दृष्टि शिष्य या श्रद्धालु गुरु वचनों को विवेकदृष्टि से तौल कर अनुसरण करता है। श्रद्धय धर्मतत्त्व : स्वरूप और श्रद्धा सम्यक् श्रद्धावान् के लिए तृतीय श्रद्धेय धर्मतत्त्व है। धर्म जीवन का बहुत बड़ा बल एवं सम्बल है । चाहे सामाजिक क्षेत्र हो, चाहे आथिक, चाहे सांस्कृतिक क्षेत्र हो, चाहे राजनैतिक, चाहे आध्यात्मिक क्षेत्र हो, चाहे साम्प्रदायिक; जीवन के सभी क्षेत्रों में धर्म की आवश्यकता है। बहुत से लोग भ्रान्तिवश धर्म को परलोक की वस्तु मानते हैं, वे सोचते हैं-धर्म का फल तो परलोक में मिलता है, कई लोग अमुक-अमुक क्रियाकाण्डों में धर्म बताते हैं, कई अमुक परम्परा या रीतिरिवाज को ही धर्म समझते हैं। कोई दाढ़ी, चोटी, जनेऊ या अमुक प्रकार की वेशभूषा में धर्म मानते हैं । परन्तु ये सब धर्म के पालन के लिए अमुक-अमुक सम्प्रदाय या परम्परा के आलम्बन हैं, इनसे धर्म-पालन में सहारा भी मिल सकता है, और कभी शुद्ध धर्माचरण में ये बाधक भी बन सकते हैं। संसार में प्रचलित विविध धर्म, धर्म के कलेवर हैं। ये अमुक-अमूक सम्प्रदाय, पंथ या मत के वाचक हैं । इनमें धर्म हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। उदाहरणार्थ, कोई धर्म सम्प्रदाय यह कहे कि अमुक देवी-देवों के आगे पशुबलि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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