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सम्यश्रद्धा की दूसरी पाँख : देव-गुरु-धर्म-श्रद्धान { ७३
पंचेन्द्रिय विषयों को रोकने अथवा वश करने वाले, नौ प्रकार की ब्रह्मचर्य गुप्ति के धारक, चतुर्विध कषायों से मुक्त; यों अठारह गुणों से संयुक्त तथा पांच महाव्रतों से युक्त, पंचाचार पालन करने में समर्थ, पांच समिति एवं तीन गुप्ति के पालक; इस प्रकार छत्तीस गुणों वाले ससाधु मेरे गुरु हैं।
सच्चा साधु संयम पालनार्थ आवश्यक उपकरण रखता है, उनके प्रति, शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं (अंगोपांग, इन्द्रिय, सम्प्रदाय, भक्त-भक्ता तथा शिष्य-शिष्या) के प्रति मोह-ममत्व नहीं रखता। भिक्षाचर्या, आहार, विहार, आदि प्रत्येक चर्या में सावधानी रखता है, स्वाध्याय एवं सुध्यान में, कायोत्सर्ग एवं व्युत्सर्ग में तत्पर रहता है। स्वावलम्बन, स्वश्रम, स्वयं तम-संयम में पराक्रम उसकी जीवन चर्या के महत्वपूर्ण अंग हैं, इसीलिए रत्नकरण्ड श्रावकाचार में प्रशस्त गुरु का लक्षण दिया है
"विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः ।
ज्ञान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥" जो पांचों इन्द्रियों के विषयों के वश में नहीं होता, जो आरम्भ और परिग्रह से विरत है, सम्यग्ज्ञान, ध्यान और सम्यक्तप में लोन रहता है, वही तपस्वी (श्रमण) प्रशस्त है। ____ जो कषायों, विषयों एवं रागद्वेष आदि विकारों का शमन करता है, जो अनुकुलता-प्रतिकूलता, शत्रु-मित्र, भवन-वन, निन्दा-प्रशंसा, लाभअलाभ में सम रहता है तथा तप-संयम में स्वयं श्रम (पुरुषार्थ) से आत्मविकास की पूर्णता की ओर बढ़ता है, स्व-पर-कल्याण साधना करता है, जो आध्यात्मिक विषयों का मार्गदर्शक है, वही श्रद्धय गुरु हो सकता है ।
सम्यग्दृष्टि के आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए ऐसा तथाकथित गुरु श्रद्धय नहीं हो सकता, जो राजा-महाराजाओं का सा ठाठ-बाट और वैभव-विलास में ग्रस्त रहता है, अपने भक्तों से भेंट-चढ़ावे के नाम पर बड़ी-बड़ी रकमें लेते हैं, कंचन और कामिनी के चक्कर में पड़े रहते हैं, नाटक, सिनेमा, रागरंग देखते हैं, भांग, गांजा, अफीम एवं शराब आदि मादक पदार्थों का सेवन करते हैं, आरम्भ-परिग्रह में आसक्त रहते हैं, प्रतिदिन सरस-स्वादिष्ट उत्तेजक एवं पौष्टिक भोजन करते हैं।
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