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________________ ७२ | सद्धा परम दुल्लहा कठिनाइयों और विपत्तियों को झलने की शक्ति आ जाती है। ऐसे ही महान आदर्शरूप अहन्त के साथ जुड़ जाने से व्यक्ति भी महान बन सकता है। जो व्यक्ति महान् आदर्श के साथ नहीं जुड़ता, उसके लिए जरा-सी विपत्ति, जरा-सी कठिनाई बड़ी बन जातो है, वह उसे पार नहीं कर पाता। दूसरी बात यह है कि आदर्श के प्रति श्रद्धा निश्छिद्र, गाढ़ और सांसारिक कामना या स्वार्थ से बिलकुल रहित होनी चाहिए। ऐसी सम्यक् श्रद्धा ही सुन्दर प्रतिफल लाती है। जिनकी श्रद्धा आदर्श की अमुक-अमुक बातों पर ही टिकी होती है, जब वे बातें पूरी नहीं होती हैं तो श्रद्धा डगमगा जाती है, टूट जाती है--ऐसी छिद्रयुक्त अधूरी श्रद्धा से सुपरिणाम प्राप्त नहीं होता । आदर्श के प्रति श्रद्धा निश्छिद्र, अविचल और निष्काम हो, और यथेष्ट सुपरिणाम न आए, ऐसा हो नहीं सकता। अनन्तज्ञानादि चतुष्टयरूप अर्हत् के प्रति जब इस प्रकार की श्रद्धा घनीभूत और तन्मयी होती है, तब आत्मा में भी अनन्तज्ञानादि-चतुष्टय का स्रोत फूट पड़ता है । कौन कहता है--आदर्श के प्रति सम्यक्श्रद्धा से लाभ नहीं होता? जैसे ही अनन्त शक्तिमान् अरहन्त की तन्मयतापूर्वक आराधना प्रारम्भ होती है, वैसे ही तन-मन के कण-कण में शक्ति का स्रोत फूटने लगता है। एक निर्बल व्यक्ति भो आदर्श के साथ तन्मय होते ही शक्ति का अनुभव करने लगता है। निर्ग्रन्थ एवं साधनाशील गुणी गुरु : स्वरूप और श्रद्धा देवतत्व के पश्चात् द्वितीय श्रद्धय तत्व है - गुरु । सम्यक्श्रद्धा (सम्यक्त्व) ग्रहण करते समय व्यक्ति को पहले गुरु के गुणों की ओर ध्यान देना आवश्यक है । वह प्रतिज्ञा करता है-'जावज्जीवाय सुसाहुणो गुरुणो' यावज्जीव तक सुसाधु मेरे गुरु हैं। आवश्यक सूत्र में गुरु की अर्हता के लिए ३६ गुण होने अपेक्षित बताए हैं "पंचिदिय संवरणो, तह नवविह-बम्भचेर-गुत्तिधरो। चउविहकसाय मुक्को इअ अट्ठारस गुहि संजुत्तो।। पंचमहव्वयजुत्तो पं वहायार-पालणसमत्थो। पंच-समिओ तिगुत्तो छत्तीस गुणो गुरु मज्झ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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