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________________ सम्यक् श्रद्धा की दूसरी पाँख : देव गुरु-धर्म श्रद्धान | ७१ राग ग्रह) देने को तत्पर रहते हैं, जो सांसारिक प्रपंचों में मग्न रहते हैं, रंग आदि में या भंग, गांजा, अफीम, शराब आदि नशीली चीजों से प्रसन्न रहते हैं, पशुबलि, नरबलि आदि से खुश होते हैं । सम्यग्दृष्टि के लिए ऐसे देव उपास्य, आराध्य और श्रद्धेय नहीं हो सकते । सम्यक् श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) आध्यात्मिक भावना प्रधान साधना है, इसमें स्वर्ग के भोगो-विलासो भौतिक ऐश्वर्य प्रधान देवों की पूजा, भक्ति श्रद्धा, या उपासना को स्थान नहीं । इसमें श्रदेय और उपास्य देव वही हो सकता है, जो राग-द्व ेष, काम, क्रोध, मोह आदि दोषों -विकारों से ग्रस्त न हो । ऐसे (पूर्वोक्त) आदर्श के प्रति श्रद्धा इतनी अविचल, निश्चल, और सुदृढ़ (गाढ़) हो, उनके प्रति तादात्म्य स्थापित हो तो साधक का द्वैत समाप्त हो जाता है । प्रारम्भिक अवस्था में ध्याता और ध्येय में भिन्नता होती है । पर जब श्रद्धा पूर्णरूप से परिष्कृत-शुद्ध हो जाता है, वह शैशवावस्था को छोड़कर प्रौढ़ावस्था में आ जाती है, तब ध्याता ( सम्यग्दृष्टि ), ध्येय ( अर्हन्त) और ध्यान ( आदर्श के प्रति एकतानता) ये तीनों एक हो जाते हैं । तीनों में अन्तर नहीं होता । राजगृह निवासी सुदर्शन श्रमणोपासक की अरहन्त वर्द्धमान महावीर के प्रति अटल, अविचल, अनन्य श्रद्धा थी, इसलिए वह यक्षाविष्ट अर्जुनमाली के आतंक के समक्ष निर्भय निर्द्वन्द्व, निरुद्विग्न और निश्चिन्त होकर अकेला ही पहुँचा | और अर्हत् महावीर का ध्यान करते ही वह महावीरमय बन गया, महावीर की शक्ति और महावीर का पराक्रम, उसकी शक्ति और पराक्रम बन गए। उसमें इतनी शक्ति और पराक्रम आ गया कि यक्ष की शक्ति और पराक्रम समाप्त हो गए । निष्कर्ष यह है कि जब व्यक्ति ज्ञानादि चतुष्टय की पूर्णता के शिखर पर पहुँचे हुए आदर्श के प्रति दृढ़तापूर्वक तादात्म्य स्थापित कर लेता है, तब छोटी-बड़ी कठिनाइयाँ, समस्याएं और आपत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं । समस्याओं, कठिनाइयों एवं आपत्तियों का शान्तिपूर्वक सामना करने और उन्हें निर्विघ्नतापूर्वक पार करने की शक्ति आ जाती है । जिस प्रकार एक नन्ही-सी बुद समुद्र से अलग रहती है, तो वह बूंद ही बनी रहती है, किन्तु जब वहो बूंद सागर के साथ मिल जाती है, जाती है । महान के साथ जुड़ जाने पर व्यक्ति | महान बन जाता है, उसमें तब वह सागर बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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