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७० | सद्धा परम दुल्लहा पुरुष हो, वे ही अरिहन्त हैं, चाहे उनका नाम कुछ भी हो । आचार्य हेमचन्द्र ने अरहन्त (जिन) का गुणात्मक लक्षण बताते हुए कहा है
"भव-बीजांकुर जनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।।
संसाररूपी बीज को अंकुरित करने वाले राग, द्वेष, मोह आदि विकार जिनके नष्ट हो गये हैं, वे चाहे ब्रह्मा हों, विष्णु हों, हर (महादेव) हों या जिन, मेरा उन्हें नमस्कार है।
अरहन्त देव के १२ गुण ये हैं, जो चार घातीकर्मों के क्षय के कारण निष्पन्न हुए हैं
(१) अनन्तज्ञान, (२) अनन्तदर्शन, (३) अनन्त अव्याबाध सुख, (४) क्षायिक सम्यक्त्व, (५) यथाख्यातचारित्र, (६) अवेदित्व, (७) अतीन्द्रियत्व, (८-१२) दानादि पांच लब्धियाँ (दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोग-लब्धि एवं वीर्यलब्धि) 11
इसी प्रकार अरहन्त देव १८ दोषों से मुक्त होते हैं। वे १८ दोष इस प्रकार हैं
(१) दानान्तराय, (२) लाभान्त राय, (३) भोगांतराय, (४) उपभोगांतराय, (५) वीर्यान्त राय, (६) हास्य, (७) रति, (८) अरति, (६) शोक (चिन्ता), (१०) भय, (११) जुगुप्सा (घृणा), (१२) काम (इच्छाकाम और मदनकाम = वेदत्रय), (१३) निद्रा (प्रमाद), (१४) अज्ञान (मूढता), (१५) मिथ्यात्व, (१६) राग, (१७) द्वष और (१८) अविरति ।
उपर्युक्त अठारह दोषों से जो रहित हो, वही आदर्शदेव सम्यक्श्रद्धाशील व्यक्ति के लिए श्रद्धास्पद होता है। इसके विपरीत जो देव रागादि दोषों से युक्त हैं, जो स्त्री, शस्त्रादि रखते हैं, मन में शत्रुता रखते और शत्रु मानकर बदला लेते हैं, जो शाप (निग्रह) और वरदान (अनु
१ कतिपय आचार्य अरिहन्त देव के १२ गुण (शारीरिक वैभव से युक्त) इस
प्रकार मानते हैं- (१) अशोकवृक्ष, (२) देवों द्वारा पुष्पवृष्टि, (३) त्रिछत्र, (४) श्वेत चामर व्यजन, (५) दिव्य-ध्वनि, (६) भामण्डल, (७) देवदुन्दुभि और (८) स्फटिक सिंहासन, ये आठ महाप्रातिहार्य तथा (8) ज्ञानातिशय, (१०) पूजातिशय, (११) वचनातिशय और (१२) अपायापगमातिशय । ये केवल तीर्थकरों की विशेषताएं (गुण) हैं।
-संपादक
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