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सम्यक् श्रद्धा की दूसरी पांख : देव-गुरु-धर्म-श्रद्धान | ६६
ज्ञानी नहीं हुआ, तथा अल्पज्ञ या छद्मस्थ हुआ तो वह जीव अजोवादि तत्वों तथा संसार-मार्ग - मोक्ष मार्ग, मुक्ति अमुक्ति, आत्मा-अनात्मा के स्वरूप के विषय में अज्ञान, संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय ( अनिश्चय), भ्रान्ति आदि के चक्कर में पड़ जाएगा । ज्ञानावरणीयादि विविध कर्मों को क्षय करने का पुरुषार्थं न करके या तो शुभ कर्मों को ही शुद्ध धर्मं मानकर अथवा धर्म के नाम पर अज्ञान एवं माहवरा पशु बलि आदि जैसे अधर्मों एवं पापों को धर्म मानकर कर्मबन्ध करता रहेगा । इसीलिए लाटी संहिता और अनगार धर्मामृत में उस आदर्श आप्त पुरुष (अर्हन्त) का लक्षण स्पष्टतः बताया गया है
दिव्यौदारिकदेहस्थो धौतघातिचतुष्टयः ।
ज्ञान- दृग् वीर्य सौख्याढ्यः सोऽर्हन् धर्मोपदेशकः । मुक्तोऽष्टादशभिर्दोषैर्युक्तः सार्वज्ञ सम्पदा ।
शास्ति मुक्ति पथं भव्यान् योऽसावाप्तो जगत्पतिः ॥2
अर्थात् - जो दिव्य औदारिक शरीर में विराजमान हैं जिसने ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनोय और अन्तराय इन चार आत्मगुणघातक घाती कर्मों को नष्ट कर दिया है जो अनन्त ज्ञान अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य (शक्ति), और अनन्तसुख (आनन्द) से परिपूर्ण है, एवं सद्धर्मोपदेशक है, वही अर्ह (आदर्श देव ) है । जो अठारह दोषों से रहित है, तथा सर्वज्ञता की सम्पदा से युक्त है जो भव्य जोवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देता है, वह त्रिलोकनाथ आप्त - पुरुष (देवाधिदेव ) है |
जैन धर्म में ऐसा आदर्श अरिहन्त देव को माना गया है। उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिए बोला जाता है - ' णमो अरिहंताणं' (अरहंताणं) अरहन्तों को नमस्कार हो । "अरहंत" शब्द गुणात्मक है । इस गुणात्मक आदर्श के प्रति श्रद्धा करने में कोई खतरा नहीं है । अरहन्त कोई भी हो सकता है । इसमें न महावीर का नाम है, न ऋषभ का और न ही महादेव, हरिहर, राम आदि किसी भी व्यक्ति का । जिसमें भी - अरहन्त के बारह मुख्य गुण हों, और जो अनन्त चतुष्टय से युक्त हो, अठारह दोषों से रहित हो, सर्वज्ञ - सर्वदर्शी हो, जो सद्धर्मोपदेशक आप्त
१ लाटी संहिता सर्ग ४ / १३६
२ अनगार-१ - धर्मामृत, श्लोक १४
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