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६८ | सद्धा परम दुल्लहा __जो सर्वज्ञ हो, राग, द्वेष, मोह आदि विकारों को जिसने पूर्णतया जीत लिया हो, जो वस्तु का जैसा स्वरूप है, वैसा ही प्रतिपादन करता हो, तीनों लोक द्वारा पूजनीय हो, ऐसा अर्हन्त परमेष्ठी ही सच्चा (आदर्श) देव है।
__ आत्मार्थी मुमुक्ष को अपने अन्तिम ध्येय (मोक्ष) तक पहुँचने यानी सतत स्व-स्वरूप में अवस्थिति करने के लिए अपने आदर्श (इष्टदेव) का चुनाव बहुत ही सावधानीपूर्वक करना चाहिए । व्यक्ति वैसा ही बनता है, जैसा उसका आदर्श होता है । आदर्श के अनुरूप ही, एवं आदर्श की छाया में व्यक्ति का वास्तविक जीवन निर्माण होता है, बशर्ते कि वह आदर्श के प्रति विवेकबुद्धिपूर्वक अनन्य श्रद्धा और निष्ठा रखे, आदर्श से दूर करने वाले विकृत भावों-विभावों एवं अनिष्ट कृत्यों से बचकर चले। निष्कर्ष यह है कि व्यक्ति जैसे आदर्श को चुनता है, जिसके प्रति समर्पित हो जाता है और जिस आदर्श के साथ तादात्म्य स्थापित करता है वैसा ही बन जाता है । अतएव सम्यक्श्रद्धाशील मुमुक्षु की साधना आराधना का आधार आदर्श ही है।
इसीलिए सम्यग्दृष्टि (सम्यक्श्चद्ध शील) के लिए ऐसा आदर्श बताया गया है-जो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य (शक्ति) और अनन्त आनन्द आत्मिक सुख) से परिपूर्ण हो। अर्थात्-जिसके ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति की कोई सीमा न हो। दूसरे शब्दों में कहें तो जो सच्चिदानन्दमय हो।
अर्हतु का अर्थ है पूर्ण आत्मा । जब तक ज्ञान की, शक्ति की, और आनन्द की अपूर्णता है, तब तक अर्हत् तत्व का विकास नहीं हो सकता। अज्ञान, शक्तिहीनता और सुख-दुःख की अनुभूति तथा दर्शन चारित्र की न्यूनता अपूर्णता है।
अगर सम्यग्दष्टि का आदर्श कमजोर होगा तो वह उसे ले डूबेगा, संकट और कष्ट (उपसर्ग) के समय वह पस्तहिम्मत हो जाएगा, उसका धैर्य, सहिष्णुता और आत्मबल जबाब देने लगेंगे । अगर आदर्शपूर्ण आनन्दमय नहीं होगा, तो प्रतिकूल परिस्थिति में,जरा-से सम्मान-अपमान, निन्दा प्रशंसा, लाभ-हानि बाह्य सुख-दुःख के प्रसंग पर अत्यन्त दुःखमय एवं अस्वस्थ बन जाएगा। अगर आदर्श अनन्त ज्ञान-दर्शनमय या अतीन्द्रिय
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