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सम्यश्रद्धा को दूसरी पांख : देव-गुरु -धर्म-श्रद्धान | ६७ पथिक निर्ग्रन्थ गुरु या वोतरागता प्रेरक सद्धर्म इस प्रकार के राग-द्वेषमोह के पचड़े में क्यों पड़ेगा ? न ही इन श्रद्धय तत्वों को अपनी प्रशंसा, प्रसिद्धि, गुणगान या स्तुति आदि से कोई प्रयोजन है, और न ये इसी प्रकार की बाह्य पूजा-प्रतिष्ठा से प्रसन्न होते हैं । इन श्रद्ध य तत्वों को अपने प्रति किसी के द्वारा श्रद्धा-भक्ति करने न करने से कोई लाभ या हानि नहीं है। बल्कि आत्मविश्वासशील मुमुक्ष आत्मार्थी यदि इनके प्रति सम्यश्रद्धा नहीं करता है, तो उसो की आध्यात्मिक हानि है, उसी के आध्यात्मिक विकास की गति-प्रगति रुक जाती है, इनके प्रति अश्रद्धा से उसे ही आध्यात्मिक विकास को अन्तिम मंजिल पर पहुँचने में प्रोत्साहन, प्रेरणा, मार्गदर्शन, सन्मार्ग आदि का लाभ नहीं मिल पाता। इसके विप्ररीत जो इन तीनों श्रद्धं य तत्वों के प्रति सम्यक्श्रद्धाशील बनता है, बही अपनी आत्मशुद्धि, आत्मविकास एवं रत्नत्रय साधना को पूर्णता पर पहुँच कर एक दिन स्वयं वीतराग, सर्वज्ञ -सर्वदर्शी और सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बन जाता है।
आदर्श : अरिहन्तदेव : स्वरूप और श्रद्धा __व्यावहारिक सम्यक् श्रद्धा के लिए सर्वप्रथम देवतत्व पर श्रद्धा करना अनिवार्य है । अरिहन्त देव श्रद्धय आदर्श हैं । जैनधर्म इन्द्र, वरुण, मरुत आदि किन्हीं विलक्षण-शक्तियों को देव या देवी को वरदाता के रूप में आदर्श देव-आध्यात्मिक शक्तियों का स्वामी देव नहीं मानता और न ही स्वयं रत्नत्रय की साधना किये बिना, उद्धार कर देने, तथा सुख-शान्ति प्रदान करने वाले अवतारी पुरुषों को आदर्श देव के रूप में मानता है। जैनधर्म का आदर्श अरिहन्त है, किन्तु वह सदा से ही आदर्श नहीं रहा। वह अवनत से उन्नत बना है। वह भी एक दिन हमारे जैसा मनुष्य था, विविध गतियों और योनियों में परिभ्रमण करते हुए अपनी रत्नत्रयसाधना से राग-द्वेष-मोह का क्षय करके वीतराग अरिहन्त बना है। जीव अगर सम्यक दिशा में तीव्र पुरुषार्थ करे तो वह भी एक दिन राग-द्वेषमोह-मुक्ति अरिहन्त या अर्हन्त परमेष्ठी बन सकता है । तथा सिद्ध-बुद्धमुक्त हो सकता है। इसीलिए योगशास्त्र में देव का लक्षण इस प्रकार दिया है
'सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः । यथास्थितार्थवादी च, देवोऽईन् परमेश्वरः ॥1
१. योगशास्त्र,प्रकाश २ श्लोक ४
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