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________________ ६४ | सद्धा परम दुल्लहा पथिक बनकर स्वयं मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं, और दूसरों को भी उस मार्ग पर बढ़ने के लिए आह्वान करते हैं - उपदेश एवं मार्गदर्शन देते हैं, मैं भी उनके बताये मोक्ष पथ पर चलकर एक दिन मंजिल प्राप्त कर सकूंगा । तथा उन्हें जंसी अलौकिक सुख-शांति एवं आत्मशक्ति प्राप्त हुई है, वैसी एक दिन मुझे भी प्राप्त होगी । इसी प्रकार आत्मविकास की उच्चतम भूमिका पर पहुँचे हुए वीतराग सर्वज्ञ आप्त पुरुषों ने अपने अनुभव से जो कल्याणकारी तत्वरूप पथ बताये हैं, वे शुद्ध धर्म हैं, जिनके आचरण से अनेक मनुष्यों ने मुक्ति प्राप्त की हैं, संसार के जन्म-मरण से मुक्त होकर अनन्तचतुष्टय प्राप्त किये हैं, वैसे ही मैं भी एक दिन प्राप्त करूँगा । सम्यक् श्रद्धा कब सफल, कब असफल ? इस प्रकार इन तीनों श्रद्धय - आराध्यतत्वों के स्वभाव पर जब दृढ़ प्रतीति हार्दिक निष्ठा एवं तीव्र भक्ति हो जाती है, तब व्यक्ति इनके और अपने बीच में किसी प्रकार का दुराव, छिपाव या अलगाव न रखे, अपने हृदय को इनके समक्ष सर्वथा खोलकर निश्छल, निर्द्वन्द्व एवं निर्भय होकर चलने को उद्यत हो जाए, तभी उसकी श्रद्धा कृतार्थ एवं सफल हो सकती है । उन वीतरागी महापुरुषों के, वीतराग- पथ के पथिकों के एवं धर्मतत्त्व के सिर्फ गुणगान कर लेने, उनके माहात्म्य को सुन लेने, अथवा उनकी आकृति या प्रतिकृति देख लेने, तथा उनकी महिमा के स्तोत्र पढ़ लेने मात्र से श्रद्धा सफलीभूत नहीं हो सकती । श्रद्धा पूर्णतया तभी सफल हो सकेगी, जब व्यक्ति उन श्रद्ध ेय तत्त्वों के समक्ष आत्मसमर्पण कर देगा, अपने अहंत्व - ममत्व का विसर्जन करके इन तीनों के लिए सर्वस्व त्याग करने, यहाँ तक कि अपने प्राणों का व्युत्सर्ग करने को तैयार हो जाएगा। इसी प्रकार हृदय में उन श्रद्धेय तत्त्वों को धारण करके मन में ऐसा संकल्प कर लेगा कि आज से ये श्रद्धय तत्व ही मेरे हृदय हैं, नेत्र हैं, कर्ण हैं, यही मेरी बुद्धि हैं, मैं इन्हीं के द्वारा चिन्तन-मनन करूँगा, देखूंगा, सुनूंगा और निर्णय करूँगा । जिस व्यक्ति के हृदय में आदर्श, मार्गदर्शक और मार्ग स्थापित नहीं हो जाता, उसके अन्तर् में श्रद्धाभाव से शून्य भक्ति की क्रियाएँ होती हैं, उनसे सम्यक् श्रद्धा प्रतिफलित नहीं हो सकती । आचार्य सिद्धसेन ने कल्याणमन्दिरस्तोत्र में ठीक ही कहा है 'आणितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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