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सम्यक् श्रद्धा की दूसरी पांख : देव-गुरु-धर्म-श्रद्धान | ६५ जातोऽस्मि तेन जन-बान्धव ! दुःखपात्रं,
यस्माक्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्या ।।1 "हे जनबान्धव ! मैंने आपके (माहात्म्य) को बहुत सुना भी,आपकी बाह्य पूजा-अचो भी की, आपकी प्रतिमा का भी दर्शन किया, किन्तु यह अवश्य है कि मैंने आपको भक्तिभावपूर्वक हृदय में धारण (स्थापित) नहीं किया । इसी कारण मैं दुःख का भाजन बना । सच है, भावशून्य क्रियाएँ कदापि प्रतिफलित (सफल) नहीं होती।"
वास्तव में श्रद्धय त्रिपुटी के प्रति श्रद्धा को सफलीभूत बनाने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं--(१) परीक्षाप्रधान विवेक दृष्टि रखकर सर्वप्रथम तीनों श्रद्धय तत्वों को जांच-परख ले, उनमें जिन-जिन गुणों और अर्हताओं की अपेक्षा है, वे हैं या नहीं ? इसकी छानबीन कर ले, (२) तत्पश्चात् उनके साथ तादात्म्य स्थापित कर ले और (३) उन्हें हृदय में धारण कर के तन्मय हो जाए, अहंकारमुक्त होकर समर्पित हो जाए और चित्त को स्वस्थ, शुद्ध, निष्पक्ष एवं विश्वस्त बनाकर इनमें एकाग्र कर दे।
सम्यकश्रद्धा की लौ अखण्ड रहे यह तो सर्वविदित है कि इन तीन श्रद्धेय तत्वों के प्रति श्रद्धा शारीरिक वस्तु नहीं है, वह शारीरिक क्रियाओं (करबद्ध वन्दन, हाथ जोड़ना, पंचांग नमाना आदि) में परिसमाप्त नहीं होती। वह अन्तर की वस्तु है, हृदय में आत्मा के ज्ञानादि गुणों के विकास की मांग है वह । इसलिए श्रद्धाशील व्यक्ति को अपने हृदय और बुद्धि के कपाटों को श्रद्धेय तत्वों की ओर खोलकर उनका रस और स्वाद अपने में समा लेना आवश्यक है। यदि श्रद्ध य तत्वों के साथ तादात्म्य सम्बन्ध से जुड़ने के पश्चात् जरा-सा भी संकट, कष्ट, रोग या दुःख आ पड़ने पर अथवा किसी वाचाल एवं चालाक व्यक्ति के वाग्जाल द्वारा उन तत्वों पर छींटाकशी, आलोचना, या मिथ्यादोषारोपण किये जाने पर अथवा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा आडम्बर, प्रदर्शन और बाह्य घटाटोप द्वारा प्रभावित एवं प्रलोभनों के पासे फेंक कर आकर्षित किये जाने पर श्रद्ध य तत्वों के प्रति उसकी श्रद्धा डगमगा जाती है, तो समझना चाहिए कि ऐसे व्यक्ति की श्रद्धा केवल वाचिक
१ कल्याणमन्दिर स्तोत्र, श्लोक ३८
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