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________________ सम्यक्श्रद्धा की दूसरी पांख : देव-गुरु-धर्म-श्रद्धान | ६३ भाव हा धर्म बन जाएगा। वहाँ ये तीनों श्रद्धय तत्व स्वतः छूट जाएंगे। प्राथमिक भूमिका में मोक्ष की ओर गति-प्रगति करने के लिए इन तीनों श्रद्धय तत्वों के आलम्बन की बार-बार आवश्यकता पड़ती है ।। अनन्य श्रद्धा : कब और कब नहीं कई लोग कुछ भी त्याग, तप, संयम या धर्माचरण करे-धरे बिना, अपने पापकर्मों से छटकारा पाने या पापमाफी पाने हेतु देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा रखते हैं, इनकी सेवा और पूजा-प्रतिष्ठा करते हैं, इनके लिए बड़े-बड़े आडम्बर, अखण्ड कीर्तन, भक्ति का घटाटोप करते हैं और यह मान लेते हैं कि इस प्रकार को श्रद्धा से हम इनके प्रति सम्यक्-श्रद्धालु भक्त या धार्मिक कहला सकेंगे, ये श्रद्धय तत्व हमारे पापों को माफ कर देंगे। परन्तु इस प्रकार की श्रद्धा के प्रदर्शन से न तो सम्यग्दर्शन होता है, न ही इस प्रकार के घटाटोप से पाप-विघटन होता है। सम्यकश्रद्धा कुछ और ही है। श्रद्धा के साथ तर्क का समन्वय होने पर ही श्रद्धा सम्यश्रद्धा बनती है। श्रद्धा का अर्थ-इन श्रद्धय तत्वों के प्रति अन्धविश्वासी बनकर, आँखें मूंदकर लकीर के फकीर बनना नहीं, न ही बिना सोचे-समझे किसी भी व्यक्ति या तत्व को अपना हृदय समर्पित कर देना है । इतना ही नहीं, अन्धश्रद्धापूर्वक जिस किसी को आराध्यदेव, वन्दनीय गुरु या श्रद्धय धर्म मान लेना भी सम्यकश्रद्धा के लिए बहत बड़ा खतरा है। कई लोग अपनी तर्क बुद्धि या विवेक-बुद्धि का आश्रय लिये बिना किसी के वाग्जाल और आडम्बर के चक्कर में पड़कर उक्त श्रद्धय तत्वों की जांच-परख किये बिना झटपट इधर-उधर लुढ़क जाते हैं, कई वंश-परम्परागत धारणानुसार देव, गुरु या धर्म की ओर झुक जाते हैं। इस प्रकार उनको श्रद्धा चल, मल और अगाढ़ (शिथिल) दोष से युक्त हो जाने से अनन्य श्रद्धा नहीं रहती। अतः सच्चे माने में सम्यकश्रद्धा तभी होगी, जब मुमुक्ष देव, गुरु और धर्म के जो-जो गण एवं लक्षण बताये गये हैं, तदनुसार पहले भलीभांति जांचपरख लेने के पश्चात् इन तीनों श्रद्धय तत्वों से तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित कर लेगा। सर्वप्रथम देवतत्व के साथ इस श्रद्धा के साथ जुड़ जाएगा कि जैसे वीतराग देव (अरिहन्त प्रभु) ज्ञान, सुख एवं शक्ति की उच्चतम भूमिका पर-आत्मा के विकास की पूर्णता पर पहुँच चुके हैं और जैसा सर्वोत्कृष्ट उज्ज्वल भविष्य वे बना चुके हैं, एक दिन वैसा ही उत्तम भविष्य मेरा भी होगा। तत्पश्चात् गरुदेव के साथ इस विश्वास के साथ तादात्म्य सम्बन्ध जोड़ लेना कि जिस प्रकार ये वीतराग पथ के अग्रिम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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