________________
६२ | सद्धा परम दुल्लहा
देवमूढता, गुरुमूढता, शास्त्रमूढता (धर्ममूढता और लोकमूढता) से रहित तथा आठ अंगों से युक्त एवं प्रशमादि लक्षण सम्पन्न जो श्रद्धान होता है, वही सम्यक्त्व कहलाता है ।
जहाँ ये मूढताएँ होंगी, विचार जड़ता होगी, वहाँ इन तीनों श्रद्धय तत्वों के प्रति श्रद्धा भी अन्धश्रद्धा या विवेकविकलश्रद्धा बन जाएगी ।
वैसे तो सभी धर्म-सम्प्रदाय वाले कहते हैं - हमारी अपने मान्य देव, गुरु और धर्म या शास्त्र के प्रति पूर्ण (दृढ़ ) श्रद्धा है । प्रायः देखा जाता है कि मुस्लिम, ईसाई, शाक्त, शैव, वैष्णव या जैन, बौद्ध आदि सभी धर्मसम्प्रदायानुयायी अपने-अपने आराध्यदेव ( अवतार, पैगम्बर या गोड, खुदा आदि) के प्रति अपने मान्य गुरुओं (फादर, प्रीस्ट, पुरोहित, साधु, संन्यासी, मौलवी आदि) के प्रति एवं स्व-स्व मान्य धर्मसम्प्रदाय या धर्मशास्त्र पर श्रद्धा, यकीन, विश्वास या faith रखते हैं, परन्तु वे प्रायः स्वत्वमोह, कालमोह या विचार- विवेक मूढ़ता से ग्रस्त होते हैं । यही कारण है कि उनकी श्रद्धा परीक्षाप्रधान, विवेकदृष्टियुक्त एवं युक्तिसंगत नहीं होने से तथा आत्मलक्ष्यी न होने से सम्यक् श्रद्धा नहीं कही जा सकती । आत्माभिमुखी श्रद्धा आत्मानुप्रेक्षण होने पर होती है । ऐसे आत्मलक्ष्यी श्रद्धा वाले साधक की श्रद्धा सर्वप्रथम आत्मा - शुद्ध आत्मा, परमात्मा पर होगी, तभी उसकी श्रद्धा सच्चे देव, सुगुरु और सद्धर्म पर टिकेगी । आत्मदर्शन ही देव गुरु-धर्म पर श्रद्धान को कल्याणकारी, आत्मलक्ष्यी एवं आत्मविकासप्रेरक बनाता है । इस मूल रहस्य को न समझकर कोरे वंश परम्परागत देव गुरु-धर्म-श्रद्धान से ही तो धर्मझनून, साम्प्रदायिक विद्व ेष, कषाय, रागद्व ेष और कलह-क्लेश बढ़ते हैं । ऐसा अन्धश्रद्धालु धर्मध्वजी व्यक्ति यह भूल जाता है कि देव, गुरु और धर्म पर श्रद्धा करने का उद्देश्य क्या है ? वस्तुतः देब, गुरु और धर्म पर श्रद्धान आत्मविकास द्वारा अन्तिम sa (मोक्ष) प्राप्ति के लिए, आत्मा को विकास की पूर्णता पर पहुँचाने और अनन्तचतुष्टय सम्पन्न बनाने के लिए है । देव, गुरु और धर्म ये तीनों श्रद्ध ेय तत्व साध्य नहीं हैं, साधन हैं, निमित्त हैं, आलम्बन हैं; साध्य तो स्वयं आत्मा है, जो अभी राग-द्व ेप-कषायादि विकारों से आच्छन्न है, उसे पूर्ण शुद्धता के शिखर पर पहुँचाना है । देव, गुरु और धर्मतत्व तो एक प्रकार से मोक्षतत्व तक पहुँचने - ऊर्ध्वारोहण करने के लिए सहारे आलम्बन हैं । मोक्ष में पहुँचना या ऊर्ध्वारोहण करना तो आत्मा को है । मोक्ष प्राप्त होने पर तो आत्मा ही स्वयं देव, आत्मा ही अपना गुरु और आत्म
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org