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________________ सम्यक्श्रद्धा की दूसरी पांख : देव-गुरु-धर्म-श्रद्धान | ६१ बुद्धि प्रायः निष्पक्ष नहीं होती । अल्पज्ञ की बुद्धि में यह दोष पाया जाता है कि वह प्रायः पूर्वाग्रहवश या मोहवश मन में जमे हुए राग के संस्कारों से युक्त हो जाती है। यदि कोई किसी वस्तु को अच्छी मानता है, तो उसकी बुद्धि उसी का बखान करतो हुई उसमें अनेक गुण बता देगी। अगर वह किसी वस्तु को खराब मानता है तो उसकी बुद्धि उसमें अनेक दोष निकाल देगी। बुद्धि के द्वारा यदि सत्य को जानना है तो बुद्धि पक्षपातरहित होनी चाहिए, और वह होती है-चित्तशुद्धि के द्वारा । शुद्धचित्त में अनुराग, मोह; आसक्ति, पक्षपात या द्वेष, घृणा, वैर, विरोधभाव नहीं होता। इस प्रकार की चित्तशुद्धि के लिए साधना की आवश्यकता है, जिसकी बुनियाद सम्यश्रद्धा है। इसीलिए सम्यश्रद्धा (सम्यग्दर्शन) के लक्षण में 'शुद्धाधीः, 'सुनिम्मलं', 'मलोज्झितं' आदि विशेषण प्रयुक्त किये गए हैं। यही कारण है कि सम्यश्रद्धा का द्वितीय लक्षण देव, गुरु और धर्म पर श्रद्धान बताया गया है, जो कि अध्यात्म यात्रा में सच्चे आलम्बन हैं; निमित्त हैं। तीनों श्रद्ध य तत्वों के प्रति श्रद्धान से लाभ कब और कब नहीं? यद्यपि देव, गुरु और धर्म अध्यात्मयात्री साधक के अन्तर् में विवेक जगा देते हैं और साधक उक्त विवेक के प्रकाश में हेय और उपादेय का, सत्य और मिथ्या का, हित और अहित का विवेक करके अपनी अध्यात्म यात्रा को सुखद, सरल और मंजिल तक पहुँचने में आसान बना लेता है परन्तु यदि साधक की विवेकबुद्धि निष्पक्ष और विकसित न हो तो देव, गुरु, धर्म के वचन कितनी ही हितकर बातें कहें, चाहे वह उनकी वाणी का कितना ही स्वाध्याय कर ले, उससे यथेष्ट लाभ होने वाला नहीं है। अरिहन्त सर्वज्ञदेव का, निर्ग्रन्थ गुरुदेव का एवं सद्धर्म का यह कथन किस द्रव्य, क्षेत्र, काल और पात्र को लेकर किया गया है ? किस अपेक्षा से यह कथन है ? इस प्रकार की विवेकप्रधान श्रद्धा एवं दृष्टि नहीं है तो ये तीनों तत्व भी उसके लिए लाभदायक सिद्ध नहीं हो सकते । इसीलिए उपासकाध्ययन एवं रत्नकरण्डक श्रावकाचार में तीन मूढताओं से रहित होने पर ही श्रद्धा को सम्यक्त्रद्धा या सम्यक्त्व से युक्त बताई है ___"मूढाद्यपोढमष्टांगं सम्यक्त्वं प्रशमादि भाक् । १ (क) उपासकाध्ययन कल्प २, श्लो. ४८ (ख) रत्नकरण्डक श्रावकाचार, श्लोक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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