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________________ ६० | सद्धा परम दुल्लहा सारी जिंदगी उसी में पूरी हो जाएगी, वह उस क्षेत्र में आगे गति-प्रगति नहीं कर सकेगा; उसी प्रकार आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में भी प्राचीन अनुभवी वीतराग सर्वज्ञ निर्दोष आप्त पुरुषों पर, एवं उनके बताए पथ 'पर चलने वाले निर्ग्रन्थ साधकों द्वारा बताए हुए अनुभूत मोक्ष के उपायरूप, स्व-पर-कल्याणकारी एवं साध्य तक पहुँचाने वाले जिनोक्त रत्नत्रयरूप धर्ममार्ग पर अनन्य श्रद्धा के आधार पर चलना पड़ता है। अन्यथा, अध्यात्म साधना की पराकाष्ठा का पूर्ण अनुभव या साक्षात्कार तो वह तेरहवें गुणस्थान की भूमिका पर पहुँचकर ही कर पाता है। यह प्रत्येक साधक के बूते की बात नहीं। अतः केवलज्ञानदशा की प्राप्ति न हो, वहाँ तक पूर्णता का साक्षात्कार किये हुए तथा उनके बताये पथ पर चलने वाले अन भवियों तथा उनके अनुभव पर अनन्य श्रद्धा रखकर चलने में कोई दोष नहीं है। तात्पर्य यह है कि सामान्य अविकसित अध्यात्मयात्री के लिए आदर्श भी अनजाना होता है, मार्गदर्शक भी अज्ञात होता है, और मार्ग भी। ये तीनों श्रद्ध य तत्व उसके लिए अज्ञात होते हैं। अभी तक जिस-जिस तत्व को जानना जरूरी था, उसे न तो जाना है, न ही उसके अनुभव का एवं उसके प्रति श्रद्धा का रसास्वादन हुआ है, उस अज्ञात, अननुभूत, अव्यक्त एवं अपरिचित तत्व की खोज कैसे हो? इसकी यथार्थ शोध के लिए ऐसे महा'पुरुष का पता लगाना आवश्यक होता है, जिसने पहले शोध की हो और अपनी स्वानुभूत शोध से सफलतापूर्वक आगे से आगे बढ़कर साधना को अन्तिम मंजिल-साध्य तक पहुँच चुका हो, अथवा जो उसी महापुरुष के द्वारा उपदिष्ट पथ पर गति-प्रगति कर रहा हो । तात्पर्य यह है कि वह अज्ञात आदर्श, अपरिचित मार्गदर्शक और अननुभूत मार्ग तभी प्राप्त हो सकता है, जब अध्यात्मयात्रा में इन तीनों श्रद्धेय तत्वों को सर्वाधिक मूल्यवान समझकर उन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि हो । ___ सांसारिक मनुष्य की बुद्धि इतनी प्रखर नहीं होती कि वह सभी तथ्यों को अपनी बुद्धि से जांच-परख सके । इसलिए उसके लिए आवश्यक है कि वह सर्वज्ञ-सर्वदर्शी पुरुषों तथा समदर्शी मार्गदर्शक गुरुओं के द्वारा बताए हुए तत्वों पर श्रद्धा रखकर तदनुसार चले । परन्तु कई बुद्धिजीवी एवं पण्डितम्मन्य लोग हठाग्रहवश किसी दूसरे (आप्त पुरुष) की बुद्धि पर निर्भर नहीं रहकर अपनी बुद्धि से ही आदर्श आदि की खोज करना चाहते हैं। परन्तु ध्यान रहे कि ऐसे अल्पज्ञ, छद्मस्थ लोगों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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