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५८ | सद्धा परम दुल्लहा
जो आत्मा के अन्दर ( अध्यात्म) को जान लेता है, वह बाहर ( आत्म- बाह्य वस्तुओं) को जान लेता है ।
सम्यक् श्रद्धा की द्वितीय पांख का आलम्बन
इसी अध्यात्म यात्रा की प्रथम उड़ान सम्यकश्रद्धा की प्रथम पांख के रूप में 'तत्वार्थ श्रद्धान' बताया है । जिसके विषय में हम पिछले अध्याय में विश्लेषण कर चुके हैं। इस अध्याय में हम सम्यक् श्रद्धा की द्वितीय पांख के विषय में चिन्तन प्रस्तुत करेंगे । सम्यक् श्रद्धा की द्वितीय पांख हैदेव, गुरु और धर्म पर श्रद्धान | अध्यात्म यात्रा की अन्तिम मंजिल तक पहुँचने के लिए इन दोनों पांखों के अवलम्बन की आवश्यकता है । आत्मा की या अध्यात्म की साधना अपने-आप में निरालम्ब है, परन्तु साध्य (मोक्ष) तक पहुँचने के लिए शुद्ध आलम्बनों की अपेक्षा है । आत्मा के लिए साध्य तक पहुंचने हेतु साधक-बाधक तत्वों के स्वभाव के ज्ञान और श्रद्धा के आलम्बन की अत्यन्त आवश्यकता है । कोई भी अध्यात्म यात्री इस आलंबन के बिना आत्म विकास की परिपूर्णता के शिखर तक नहीं पहुँच सकता । श्रद्धय त्रिपुटी श्रद्धानरूप आलम्वन क्यों ?
प्रश्न होता है कि तत्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यक् श्रद्धा के आलम्बन से ही अध्यात्म यात्री का साध्य प्राप्ति का काम हो जाता, फिर देव गुरु-धर्मश्रद्धानरूप सम्यक् श्रद्धा के आलम्बन की क्या आवश्यकता है ?
इसका एक समाधान तो यह है कि जिस अध्यात्मयात्री को तत्वार्थ श्रद्धान हो गया है, उसे अरिहंतदेवादि त्रिविध श्रद्धयों के प्रति श्रद्धान अवश्य होना ही चाहिए; क्योंकि जो तत्वभूत पदर्थं बताए गए हैं, उनके प्ररूपक, मार्गदर्शक एवं मार्ग तो देव (अरिहन्त ), गुरु (निर्ग्रन्थ- सुसाधु ) और वीतराग प्रज्ञप्त ( रत्नत्रय रूप या श्रुत चारित्ररूप ) धर्म ही है | इन तत्वभूत पदार्थों का ज्ञान और दर्शन श्रुतधर्म के अन्तर्गत आजाता है । और यह भी सत्य है कि जिसका अरिहंतदेवादि त्रिविध श्रद्धयों के प्रति श्रद्धान नहीं होता, उसे उनके द्वारा प्ररूपित, उपदिष्ट तथा मार्गदर्शित तत्वार्थी पर श्रद्धान हो नहीं सकता । अतएव तत्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक् श्रद्धा के लिए देव- गुरु- धर्म - त्रिपुटी पर श्रद्धान होना अनिवार्य है । इसीलिए सम्यक् श्रद्धा के द्वितीय लक्षण के रूप में देव - गुरु-धर्म-श्रद्धान भी आवश्यक है ।
दूसरा समाधान यह है कि सभी आध्यात्मिक यात्री एक सरीखी भूमिका बाले नहीं होते । जो अध्यात्मजीवन में प्रवेश करने वाले अध्यात्मयात्री हैं उन्हें 'तत्वार्थ - श्रद्धान' कह देने से पूर्णतया समझ में नहीं आता
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