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सम्यक् श्रद्धा की दूसरी पांख : देव-गुरु-धर्म-श्रद्धान
अध्यात्मयात्रा की पहली उड़ान : सम्यक् श्रद्धा मुमुक्षु जीवन के लिए आध्यात्मिक विकास बहुत जरूरी है । आध्यात्मिकयात्रा की पहली उड़ान सम्यक्श्रद्धा या सम्यग्दर्शन से प्रारम्भ होती है । उसकी साधना के बिना अध्यात्म-यात्रा आगे नहीं बढ़ सकती; क्योंकि अध्यात्म यात्रा में आत्मा के अन्दर देखना होता है। आत्मा के अन्दर देखने की रुचि, वृत्ति या प्रवृत्ति तभी होती है, जब मनुष्य की दृष्टि और श्रद्धा सम्यक् हो। अज्ञान और मिथ्यात्व से आवृत दृष्टि वाला आत्मा बाहर ही बाहर देखता है। वह बाहर की सारहीन वस्तुओं को सारयुक्त समझता है। असारभूत बाह्य संसार को सम्यक् सारयुक्त समझता है। इन्द्रियों के विषय-भोगों और मन की विविध विकारी वृत्तियों को, अहंत्वममत्व को, मोहमाया को, मनोऽनुकूल इष्ट पदार्थों के संयोग को तथा अनिष्ट पदार्थों के वियोग को सारभूत समझकर उन्हीं में रमण करता रहता है। बाहर के भौतिक एवं सांसारिक क्षणिक सुख-साधनों में सार खोजने से अन्दर की झांकी करने की रुचि तथा श्रद्धा होती ही नहीं । यह नहीं सोचा कि अध्यात्म यात्रा-भीतर की यात्रा करने वाले को भीतर के तत्वों का तो ज्ञान होता ही है, बाहर के तत्वों का भी ज्ञान हो जाता है । इसलिए आचारांग सूत्र में कहा गया है
'जे अज्झत्थं जाणई, से बहिया जाणई ।'1.
१ आचारांग श्र.० १, अ० १, उ० ७, सूत्र १४७ ।
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