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५६ | सद्धा परम दुल्लहा
निर्जरा होती है । जो निर्जरा स्वेच्छा से उद्देश्यपूर्वक होती है, वह सकाम'निर्जरा कहलाती है, यही निर्जरा सम्यग्दृष्टि आदि के लिए उपादेय है । अज्ञानपूर्वक कष्ट सहने से, बलात् कष्ट सहने, हाय-हाय करते हए किसी कष्ट को भोगना अकाम-निर्जरा है, जो साधु वर्ग के लिए अभीष्ट नहीं है । सम्यग्दृष्टि सूश्रद्धावान् व्यक्ति समभावपूर्वक आ पड़े हुए कष्ट, दुःख, 'विपत्ति, उपसर्ग, परीषह आदि को सहन करता है, वह निमित्तों आदि को कोस कर या शोक विलाप आदि करता हुआ नये कर्मों को नहीं बाँधता। निर्जरा से अवश्य ही आत्मशुद्धि होती है, इसे वह श्रद्धापूर्वक मानता है।
मोक्ष : स्वरूप और श्रद्धा-संचित सर्व कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाना, तथा कर्मबन्ध के कारणों का अभाव हो जाना मोक्ष है। संवर और निर्जरा, ये मोक्ष के दो कारण हैं। इसमें आत्मा समस्त विकारों से रहित होकर निजस्वरूप में स्थिर हो जाता है। सम्यग्दृष्टि आत्मा इसके स्वरूप पर चिन्तन करके इसे अन्तिम लक्ष्य मानकर रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति से यथासम्भव बचकर संवर और निर्जरा में ही प्रायः अपने योगों को लगाता है।
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