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सम्यक्श्रद्धा की एक पांख : तत्वार्थश्रद्धान | ५५
यह संयोगावस्था ही संसार दशा कहलाती है । यह दशा तभी समाप्त होती है, जब जीव कर्मों से सर्वथा मुक्त-पृथक् हो जाता है । बन्ध भी शुभाशुभ के भेद से दो प्रकार का होता है। शुभ बन्ध को पूण्य तथा अशुभ बन्ध को पाप भी कह सकते हैं । आस्रव और बन्ध में अन्तर इतना ही है कि आश्रव में शुभाशुभ कर्मों का आगमन होता है, और बन्ध में शुभाशुभ कर्म आत्मा के साथ धुलमिलकर बँध जाते हैं। सम्यकश्रद्धावान् सम्यग्दृष्टि बन्ध के जिनोक्त स्वरूप को श्रद्धापूर्वक हृदय से जानता है, और सदैव सतर्क रहता है, कर्मों के बीजरूप राग-द्वषादि विकार या शुभाशुभ विकल्प आत्मा में न आयें, क्योंकि सम्यग्दृष्टि का लक्ष्य मोक्ष है, और वह जानता है, कि जब तक आन्तरिक शुभाशुभ विकल्प और रागद्वषादि विकार दूर नहीं होंगे, तब तक शुभाशुभ कर्मबन्ध नहीं रुकेगा, न ही क्षय होगा और कर्मों के सर्वथा क्षय (बन्ध-मुक्त) हुए बिना मोक्ष नहीं हो सकेगा। सम्यग्दृष्टि जानता है कि कर्मबन्ध जीव की परतन्त्रता का कारण है। रागद्वेष की स्निग्धता से युक्त चेतन ही कर्म बांधता है, जो स्निग्धता से रहित है, वह मन-वचन-काया की क्रिया करता हुआ भी कर्म नहीं बाँधता । कर्मबन्ध के चार प्रकार हैं-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभाग (रस) बन्ध और प्रदेशबन्ध ।
संवर : स्वरूप और श्रद्धा-आश्रवों का निरोध करना ही संवर है । अर्थात्-आत्मा जो प्रतिपल प्रतिक्षण कषाय और योग के वशीभूत होकर कर्मों का उपार्जन करता रहता है, अतः उन प्रतिक्षण आते हुए नये कर्मदलिकों के आगमन को रोक देना ही संवर है। कषायों का निरोध भावसंवर है, जबकि कषाय-निरोध होने पर ज्ञानावरणीयादि द्रव्यकर्मों के आगमन का रुक जाना द्रव्यसंवर है । संवर के समिति, गुप्ति, व्रत, आदि कुल ५७ भेद हैं । यों मुख्यतया अहिंसादि पांच महाव्रतों को भी पंच संवर कहा गया है । सम्यग्दृष्टि स्वरूप समझकर श्रद्धापूर्वक यथाशक्ति संवर के लिए सचेष्ट रहता है।
निर्जरा : स्वरूप और श्रद्धा-पुराने बंधे हुए कर्मों का आत्मा से आंशिक रूप से पृथक् (क्षय) होना निर्जरा है । परन्तु निर्जरा तब तक नहीं होती जब तक बन्ध के कारणों का अभाव नहीं होता और कर्मों का आसवण (आगमन) नहीं रुकता।
व्रत, नियम, संयम, परीषहजय, द्वादशविध तप आदि से कर्मों की
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