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: ५४ | सद्धा परम दुल्लहा
संसारी आत्मा पुण्य (शुभास्रव) को पकड़ता है और पाप आस्रव को छोड़ता है, परन्तु सम्यक् द्वावान् मानव पुण्य-पाप दोनों को छोड़ता है, त्याज्य समझता है । वह समझता है कि पाप लोहे की बेड़ी है उसी प्रकार पुण्य भी सोने की बेड़ी है। दोनों बन्धनरूप हैं, दोनों एक ही कार्य करने वाले हैं | परन्तु मोहावृत अज्ञानी नर पुण्य-बन्धन को पाकर अपने को भाग्यशाली और सुखी समझता है । सम्यग्दृष्टि मानव पुण्य को अनुकूल वेदनरूप एवं क्षणिक सुखरूप होने पर भी अन्त में त्याज्य समझता है, किन्तु पुण्य के कारण प्राप्त हुई सुखसाधन सामग्री उस व्यबित के बिपरीत भावों या दुरुपयोग के कारण दुःखरूप भी हो सकती है । अतः पुण्य या पाप का नाप-तौल बाह्यक्रियाओं या कार्य पर से नहीं होता, वह चेतन आत्मा के शुभाशुभ संकल्प या परिणाम (भाव) पर निर्भर है । तन-मनवचन या साधन ये सभी जड़ हैं, जड़ पदार्थों से होने वाली क्रियाओं का फल इन जड़ वस्तुओं को नहीं मिलता, न ही इन्हें शुभाशुभ कर्मबन्ध होता है ।
शुभाशुभ कर्मबन्ध या कर्मफल चेतन को उसके परिणामों के अनु- सार मिलता है । बाह्य शारीरिक क्रियाओं पर से पुण्य-पाप का नाप-तौल किया जाएगा तो बहुत ही गड़बड़ होगा । एक सरीखी क्रिया होने पर भी उसके पीछे निहित व्यक्तियों के अपने-अपने भावों और प्रयोजनों में काफी अन्तर होने पर भी सबको पुण्य या पाप कह देना गलत होगा । बाह्य क्रियाएँ व्यक्ति के अनुकूल भी हो सकती हैं, प्रतिकूल भी । प्रतिकूल क्रिया होने पर भाव शुद्ध हैं तो पुण्य होगा, और अनुकूल क्रिया होने पर भी भाव अशुभ है तो पाप होगा । अतः पुण्य-पाप का निर्णय केवल तन-वचनादि की क्रियाओं पर से न करके व्यक्ति के परिणामों से करना ही उचित और शास्त्रसम्मत होगा । सम्यग्दृष्टि आत्मा शुभाशुभ आस्रव के जिनोक्त - यथार्थस्वरूप को श्रद्धापूर्वक जानकर इन्हें त्याज्य समझता है, लेकिन चारित्रमोहकर्मवश कदाचित् त्याग नहीं पाता । जैसे- श्रेणिक राजा क्षायिक सम्यग्दृष्टि था, पुण्य-पाप-रूप दोनों प्रकार के आस्रवों को हेय समझता था; किन्तु चारित्रमोहकर्मवश पुण्य को सर्वथा त्याग न सका ।
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बन्ध : स्वरूप और श्रद्धा - जीव (आत्मा) और कर्मपुद्गलरूप अजीव दोनों का दूध और पानी की तरह एकमेक ( एक क्षेत्रावगाही ) हो जाना -बन्ध है | बन्ध-अवस्था आत्मा की संसारी अवस्था है । इसमें आत्मा और - कर्मपुद्गल दोनों विजातीय द्रव्य परस्पर सम्बद्ध हो जाते हैं । दोनों की
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