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सम्यक् श्रद्धा की एक पांख : तत्वार्थश्रद्धान | ५३
इस प्रकार करने से हो जीव के साथ संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्वों के प्रति उसकी श्रद्धा-भक्ति एवं निष्ठा प्रकट होगी ।
अजीव तत्व : स्वरूप और श्रद्धा अजीव का लक्षण है - जिसमें चेतना, सुख-दुःख का संवेदन, या ज्ञान ( उपयोग ) न हो । जोवतत्व से ठीक विपरीत लक्षण अजीव का है, क्योंकि अजीव जीव का प्रतिपक्ष है। अजोव के मुख्यतया पांच भेद हैं(१) धर्मास्तिकाय (२) अधर्मास्तिकाय (३) आकाशास्तिकाय, (४) काल और (५) पुद्गलास्तिकाय ।
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अजीव दो प्रकार का होता है-रूपी और अरूपी । शरीर, इन्द्रियां, अंगोपांग, मन, कर्म आदि तथा पुस्तक, मकान आदि इन्द्रियों से ज्ञात होने वाली सभी वस्तुएँ रूपी पुद्गल हैं । आकाश, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि सब अरूपी अजीव हैं । रूपो पुद्गल अजीव हैं और जड़ पर - माणुओं के पिण्ड हैं । रागादि भाव वस्तुतः चेतन के स्वाभाविक भाव न होने से अचेतन हैं, किन्तु चेतन के साथ घुल-मिल जाते हैं और ये मोहयुक्त सांसारिक जीव में होते हैं, मोहमुक्त जीव में नहीं । इस प्रकार सम्यक् श्रद्धावान को अजीव का स्वरूप जानकर भलीभांति हृदयंगम कर लेना चाहिए ।
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आस्रव: स्वरूप और श्रद्धा - आस्रव कर्मों के आगमन का द्वार है । जीवरूपी तालाब में शुभाशुभ कर्मरूप जल का आना आस्रव है । जिस प्रकार समुद्र पर चलने वाली छिद्रयुक्त नौका में पानी भर जाता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और शुभाशुभयोगत्रय ( मनवचन - काय की प्रवृत्ति ) इन पांच कारणों से आत्मारूपी नौका सच्छिद्र हो जाने से उसमें शुभाशुभ कर्मरूपी जल आ ( प्रवेश कर ) जाता है। वही आस्रव कहलाता है । दूसरी दृष्टि से देखें तो आस्रव में एक ओर जीव (आत्मा) रागद्वेषादिरूप विभाव अवस्था में परिणत होता है तो दूसरी ओर कार्मणवर्गणा के पुद्गल भो कर्मरूनी विभाव अवस्था में परिणत होते हैं । इन दोनों का विभाव परिणति के कारण जब अजीब द्रव्य यानी कार्मणवर्गणा के पुद्गल जोव के साथ संयोग करने हेतु आकर्षित होकर जीव के सम्पर्क में आने लगता है, उसो अवस्था को आस्रव कहा जाता है।
पुण्य और पाप दोनों क्रमशः शुभ और अशुभ आस्रव हैं। शुभयोग से पुण्य का आस्रव ( आगमन) होता है, जबकि अशुभ योग से पाप का ।
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