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________________ ४८ | सद्धा परम दुल्लहा इसका समाधान यह है कि यहाँ आध्यात्मिक-आत्मा के विकास हास से सम्बन्धित तत्वों का प्रसंग है, लौकिक, भौतिक या सांसारिक तत्वों का नहीं । यद्यपि आस्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, अजीव आदि तत्व संसार परिभ्रमण के कारण होने से सांसारिक कहे जा सकते हैं, किन्तु यहाँ आध्यात्मिक विकास के सर्वांगीण एवं आत्मलक्ष्यो दृष्टि से सभी पहलुओं से विचार करने हेतु आत्मविकास के साधक तत्वों के साथ-साथ बाधक तत्वों पर भी विचार करना अनिवार्य है। यही कारण है कि इन नौ या सात तत्वों को सम्यश्रद्धा के सन्दर्भ में तत्वभूत माना गया है। आत्मलक्ष्यी दष्टि से विचार करने में आस्रव, बन्ध, पूण्य, पाप एवं अजीव आदि तत्व सांसारिक होते हुए भी तत्वभूत ही सिद्ध होते हैं। यों देखा जाय तो जब तक मोक्ष प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक कोई भी साधक चाहे कितनी ही उच्चकोटि की साधना करता हो, वह है तो सांसारिक ही, संसार में ही रहता है, संसार में ही जीता है, परन्तु सम्यश्रद्धा वाले उस व्यक्ति की दृष्टि संसारलक्ष्यी नहीं होती, मोक्षलक्ष्यी होती है। यों भी देखा जाए तो जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर से लेकर निर्जरा तक के सभी तत्व सांसारिक जीवों के लिए ही है, मोक्ष भी जब तक प्राप्त नहीं हो जाता तब तक सम्यग्दृष्टि-सम्यश्रद्धायुक्त साधक के लिए उपादेय एवं ध्येय हैं। जब वह साधक सिद्ध बुद्ध-मुक्त हो जाता है, तब इन तत्वों को जानने, मानने, ग्रहण करने वा छोडने की जरूरत नहीं रहती। परन्तु जो महापुरुष संसार में रहते हुए साधना करते-करते वीतरागता की भूमिका तक या सिद्धत्व, परमात्मपद या मुक्त की भूमिका तक पहँचे हैं, उन्होंने इन समस्त तत्वों का एक या दूसरे प्रकार से अनुभव किया और यह निश्चित किया कि इन नौ या सात तत्वों से एक या दूसरे प्रकार से प्रत्येक साधक से वास्ता पड़ता है, उस समय सम्यश्रध्दालु साधक को अमुक तत्व आत्म-विकास में बाधक होने से हेय, अमुक तत्व साधक होने से उपादेय और सभी तत्वों का स्वरूप एवं धर्म (स्वभाव) जानना अनिवार्य होने से ज्ञेय समझना चाहिए । पूर्ण श्रद्धा एवं निष्ठा पूर्वक इनको यथायोग्य जानना चाहिए । इसीलिए कहा गया है-जिण-पण्णत्तं तत्तं। अथवा जिणवरेहिं पण्णत्तं तत्तं । यही कारण है कि ये सात या नौ तत्व अल्पज्ञों द्वारा कथित नहीं हैं, मनःकल्पित या मनगढन्त नहीं हैं, अपितु ये वीतराग सर्वज्ञ आप्त अरहन्तों (जिनेन्द्रों) द्वारा कथित, प्ररूपित या उपदिष्ट हैं। इसलिए तत्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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