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सम्यक् श्रद्धा की एक पांख : तत्वार्थश्रद्धान | ४६
भूत हैं, ये तत्व (पदार्थ) वीतराग सर्वज्ञ द्वारा भाषित या उपदिष्ट होने से इनकी तत्त्वरूपता में किसी शंका को अवकाश नहीं है । वीतराग सर्वज्ञ आप्त पुरुषों ने भी इन सात या नौ पदार्थों को तत्त्वभूत इसलिए बताया है कि जीवतत्त्व को छोड़कर शेष सभी पदार्थ आत्मा (जीव ) के चरम विकास एवं ह्रास में, शुद्धि एवं अशुद्धि में अथवा संसारवृद्धि एवं संसार ह्रास में निमित्त कारण हैं । आत्मा के चरमविकासरूप मोक्ष का साधन जब सम्यग्दर्शन को बताया गया है तब आत्मा के चरमविकास में साधक या बाधक के रूप में इन्हों पदार्थों को तत्वभूत बताना आवश्यक था । साथ ही आध्यात्मिक विकास के सन्दर्भ में इन पदार्थों में से हेय, ज्ञेय और उपाय कौन कौन से तत्व हैं, यह बताना भी अभीष्ट था । ताकि सम्यग् - दृष्टि मुमुक्ष, जीव इन पदार्थों को वास्तविकरूप में जानकर सम्यक् श्रद्धा कर सके । सूत्रप्राभृत में इसी तथ्य को उजागर किया गया है
सुतत्थं जिण भणियं जीवाजीवादि बहुविहं अत्थं । हेयाहेयं च जहा जो, जाणइ सो हु सुदिट्ठी ॥
वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकरों ने जीव, अजीव आदि बहुविध पदार्थों को सुतथ्य ( तत्त्वभूत) बताया है, उनमें से जीव, संवर, निर्जरा और मोक्ष को उपादेय तथा अजीव, आस्रव (पुण्य-पाप) एवं बन्ध को हेय एवं सभी पदार्थों को ज्ञेय समझकर जो यथातथ्यरूप से जानता है, वही सम्यग्दृष्टि - सुश्रद्धासम्पन्न है ।
तात्पर्य यह है कि जो पदार्थ हेय, उपादेय और ज्ञेय, जैसा जिस रूप में अवस्थित है, उसका जिनेन्द्र भगवन्तों ने वैसा रूप बताकर, इन नौ या सात पदार्थों की तत्त्वरूपता स्पष्ट कर दी है । इसलिए ये ही जिनोक्त पदार्थ तत्वभूत माने जाते । हाँ, इनके नाम दूसरे दर्शनों में चाहे और हों, परन्तु तत्वतः ये ही पदार्थ सम्यग्दृष्टि के लिए श्रद्धानयोग्य हैं ।
जिनोक्त सात तत्वभूत पदार्थ.
जब पुण्य-पाप को पृथक पृथक बताते हैं, तब जीव, अजीव आदि तत्वभूत पदार्थ नौ होते हैं और जब पुण्य और पाप को आस्रव ( शुभः आस्रव - अशुभ आस्रव) तथा बन्ध ( शुभबन्ध - अशुभबन्ध) में समाविष्टः कर देते हैं तो ये सात ही होते हैं । इसीलिए तत्वार्थसूत्र, वसुनन्दिश्रावका
१ सूत्रप्राभृत, गा. ५
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