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सम्यश्रद्धा की एक पांख : तत्वार्थश्रद्धान | ४१
साथ हो सम्यश्रद्धा के लिए इन सात या नी तत्वों में से जीवतत्व (आत्मा) को केन्द्रीभूत मानकर शेष सभी तत्वों को उस(आत्मा) के विकास या हास की दृष्टि से भलीभांति जान या मान लेना भी आवश्यक है। सम्यक् श्रद्धा की खरी कसौटी तभी है, जब मुमुक्षु में इन तत्वों में से हेय, ज्ञेय और उपादेय का विवेक करके हेय तत्वों को छोड़ने और उपादेय तत्वों को ग्रहण करने की रुचि पैदा हो । इन तत्वों के जिनेन्द्र प्ररूपित स्वभाव के प्रति उस की दृढ श्रद्धा हो, साथ ही उसके मन में अजीव, आश्रव और बन्ध से आकुलता-अशान्ति जानने-देखने और अनुभव करने की वृत्ति हो तथा जीव, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष तत्व में अनाकुलता,शान्ति जानने-देखने एवं अनुभव करने की वत्ति हो। इसके अतिरिक्त इन तत्वों के बार-बार श्रद्धापूर्वक आत्मलक्ष्यी चिन्तन से उसकी संसार और उसके कारणों के प्रति विरक्ति और मूक्ति तथा उसके कारणों के प्रति तीव्र उत्कण्ठा हो। ऐसी सम्यक श्रद्धा जिसके जीवन में आ जाती है, उसकी कषायों में मन्दता, विषयासक्ति में अल्पता, तथा प्राणि मात्र के प्रति समता एवं रत्नत्रयरूप मोक्ष मार्ग पर चलने की उत्सुकता होनी चाहिए। स्वयं शास्त्रादि पढ़कर या गुरु. देव के उपदेश से सुनकर मानी हुई, किन्तु आत्मलक्ष्यी चिन्तनपूर्वक हृदय से नहीं स्वीकारी हुई श्रद्धा आदि तोतारटनवत् ही सिद्ध होती है। वह अनुभवात्मक नहीं हो, तब तक सम्यक्श्रद्धा नहीं कही जा सकती।
सम्यश्रद्धा यह नहीं, वह है ! सम्यक्श्रद्धा के लिए केवल इतना-सा जानना या कह देना पर्याप्त नहीं है कि सर्वज्ञ वीतराग प्रभु द्वारा प्रतिपादित सात या नौ तत्व सत्य हैं। उसके लिए यह भी जानना-मानना आवश्यक है कि इन तत्वभूत पदार्थों में से कौन-से तत्व मेरे आत्महित में बाधक है, और कौन-से साधक हैं ? मैं आत्मा (जीव) हैं, मेरा स्वभाव ज्ञान-दर्शनमय है, ज्ञान दर्शन, सुख और वीर्य आदि मेरे निजी गुण हैं, मैं अनन्त शक्तिमान् आत्मा हैं। मेरा (जीव का) स्वरूप अजीव से भिन्न है। शरीर इन्द्रियाँ, मन, एवं संसार के समस्त अजीव या जड़ पुद्गलों के साथ या दूसरे जीवों के साथ केवल मेरा संयोग सम्बन्ध है, इसलिए मुझे उनके प्रति राग, द्वेष, मोह, आसक्ति, घृणा आदि करने से (कर्मों का) वन्ध होगा; मिथ्यात्व आदि पाँच आश्रवों से नये-नये कर्म आकर आत्मा के विकास को रोकेंगे । अतः आते हुए कर्मों को रोकना (संवर) तथा पूर्वबद्ध कर्मों को आंशिक रूप से क्षय (निर्जरा) करना और
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