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सम्यश्रद्धा की एक पांख : तत्वार्थश्रद्धान
सम्यक् श्रद्धा : कब है, कब नहीं ?
मुमुक्षु जीवन की मूलभूत निधि सम्यश्रद्धा है। सम्यक्श्रद्धा को जब तक वह सर्वांगीण रूप से नहीं समझ लेता, तब तक उसकी वह श्रद्धा कच्ची समझी जाती है । पक्की श्रद्धा तभी समझी जाती है, जब वह सम्यक्श्रद्धामूलक सम्यग्दर्शन को दोनों पांखों से जान ले, भली भांति समझ ले। तात्पर्य यह है कि जब तक तत्वार्थश्रद्धान रूप तथा देव-गुरु-धर्म श्रद्धानरूप सम्यश्रद्धात्मक सम्यग्दर्शन की दोनों पांखों को उनके सभी अंगोपांगों सहित जान-पहचान न ले और अन्तःकरण से उन पर श्रद्धा न करले, तब तक सम्यश्रद्धा नहीं हो सकती। सुश्रद्धा की प्रथम पांख
उदाहरणार्थ-सुश्रद्धात्मक सम्यग्दर्शन का प्रथम लक्षण है-'तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शन-तत्वभूत पदार्थों पर श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है । इतना सा लक्षण मान कर किसी व्यक्ति की तत्वभूत पदार्थों पर श्रद्धा तब तक सच्ची श्रद्धा नहीं मानी जा सकती, जब तक वह व्यक्ति तत्व क्या है ? वे कितने हैं ? उनका अर्थ या भाव (स्वभाव) क्या है ? उन पर श्रद्धान क्यों
और कैसे किया जाए ? उन तत्वों का स्वरूप क्या है ? इन और इनसे सम्बन्धित तथ्यों को गहराई से न समझ ले।
१ तत्वार्थ सूत्र अ. १, सू. २
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