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________________ ४२ | सद्धा परम दुल्लहा धीरे-धीरे कर्मों से सर्वथा मुक्त होने (मोक्ष) की तीव्र भावना रखना आदि शुद्ध आत्मलक्ष्यी जागृति रखना भी सम्यक् श्रद्धावान् के लिए आवश्यक उदाहरणार्थ-अहिंसा, करुणा, दया आदि की भावना या सामान्य श्रद्धा मनुष्य में ही क्यों, पशु-पक्षियों तक में होती है, परन्तु वह सम्यकश्रद्धा का रूप तभी ले सकती है, जब अहिंसादि के प्रति उनकी निष्ठा या प्रतीति हो। जैसे माता के हृदय में अपने शिशु के प्रति करुणा और वात्सल्य का प्रवाह उमड़ता है उसमें अहिंसा की क्षीण धारा भले ही छिपी हो, परन्तु उसे हम अहिंसा की निष्ठा नहीं कह सकते। वह स्वल्प अहिंसा की सुषुप्त धारा, मोह, ममता या आसक्ति से प्रेरित भी हो सकती है, क्योंकि जैसी वत्सलता या करुणा उस माता की अपने माने जाने वाले पुत्र के प्रति है वैसी दूसरों के पुत्रों पर प्रायः नहीं होती। इसलिए वह अहिंसा की निष्ठा या प्रतीति नहीं है। आपने देखा होगा कि बिल्ली का अपने बच्चों के प्रति जैसा प्रेम होता है, वैसा चूहे के प्रति नहीं होता। जब वह अपने बच्चे को दांतों से पकड़कर ले जाती है, तब एक भी दाँत बच्चे के शरीर पर गड़ने नहीं देती, लेकिन उन्हीं दांतों से वह जब चूहे को पकड़कर ले जाती है तो सभी दांत उसके शरीर पर ऐसे गड़ा देती है कि वह पीड़ा के मारे चींची करने लगता है तथा उसके शरीर से खून की धारा बहने लगती है। बिल्ली की भावना में एक के प्रति वत्सलता है तो दूसरे के प्रति करता है। यह बिल्ली की अहिंसा में निष्ठा नहीं कही जा सकती। निष्ठा कहते हैं किसी भी तत्व की यथार्थ रूप से प्रतीति को।। ____ जीव-अजीव, पुण्य-पाप आदि नौ या सात तत्वों के प्रति कभी तो श्रद्धा हो, और कभी अश्रद्धा हो जाय, तो वह निष्ठात्मक श्रद्धा नहीं है। जब कभी अपनी प्रतिष्ठा या विद्वत्ता की छाप समाज, राष्ट्र या जनता पर डालनी हो, तब तो कह दे कि जीव-अजीव आदि जिनोक्त तत्वों के प्रति मेरी पूर्ण श्रद्धा है, मुझे परम्परा से ऐसी श्रद्धा प्राप्त हुई है, परन्तु जब कभी उसे जैनसमाज बहिष्कृत करने लगे या वह स्वयं धर्मान्तर या सम्प्रदायान्तर करने लगे अथवा किसी कारणवश धर्माचरण करते हुए भी पूर्वकर्मवश उस पर कोई संकट, विपत्ति या दुःख आ पड़े अथवा संकट के समय वह वीतराग परमात्मा से पुकार करे, किन्तु किसी पूर्वकृत पापकर्मवश उसका संकट दूर न हो, तब वह पुण्य-पाप को अथवा पाप-आश्रव और अशुभकर्म के बन्ध को फिजूल की गप्पें कहकर उन तत्वों के प्रति अश्रद्धा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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