________________
३८ | सद्धा परम दुल्लहा
कारण तो दर्शनमोह आदि के क्षय, उपशम या क्षयोपशम ही है। उसका सभी सुरुचियों के साथ होना अनिवार्य है। - सचमुच, सम्यक्श्रद्धा के द्वार तक पहुँचने के लिए ये दशविध रुचियाँ भी भव्यजीव अपनाते हैं । वस्तुतः ये रुचियाँ सम्यक्श्रद्धा की प्रारम्भिक भूमिका हैं । इनमें से प्रत्येक रुचि सम्यक् श्रद्धा की उत्पत्ति में बाह्य निमित्त कारण हैं । इसलिए इन्हें सम्यक्त्व भी कह दिया गया है । तत्त्वरुचि : कब सम्यश्रद्धा, कब नहीं ? । आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में सम्यग्दर्शन (सुश्रद्धान) का लक्षण दिया है
रुचि जनोक्ततत्वेषु सम्यग्दर्शनमुच्यते वीतरागदेवों द्वारा प्ररूपित तत्त्वों पर रुचि होना, सम्यग्दर्शन कहलाता है।
इस सम्बन्ध में प्रश्न यह है कि रुचि को धर्म कहा जाए या कर्मों का औयिक भाव ? गहराई से सोचा जाए तो रुचि एक प्रकार की इच्छा है, रागभाव है, कषायभाव है, वह धर्म नहीं बन सकती। अगर रुचि या इच्छा को धर्म कहा जायेगा तो संसार में कोई भी अभव्य नहीं रहेगा; क्योंकि रुचि तो अभव्य में भी रहती है, तथा मिथ्यादृष्टि में भी, फिर तो दोनों को सम्यग्दृष्टि कहना पड़ेगा।
इसका समाधान हेमचन्द्राचार्य आदि ने यही किया है कि सिर्फ रुचि को ही सुश्रद्धान या सम्यग्दर्शन नहीं कहा जाता, अपितु (जिनोक्त) तत्त्वरुचि को सुश्रद्धान या सम्यग्दर्शन कहा जाता है ।
फिर भी एक प्रश्न अवशिष्ट रहता है कि तत्वरुचि तो नास्तिक, अन्धविश्वासी, मांसाहारी, व्यभिचारी, किन्तु प्रखरबुद्धि वाले साक्षर (शिक्षित) व्यक्ति में भी होती है। उदाहरणार्थ-एक शिक्षित व्यक्ति है, दर्शनाचार्य है, उसमें अपनी प्रसिद्धि, तरक्की अथवा अन्य सांसारिक स्वार्थों को लेकर तत्त्वरुचि होती है। वह घन्टों तक तत्त्वचर्चा में लीन रहता है । किन्तु उसकी यह तत्त्वरुचि संसारलक्ष्यी है, सम्यश्रद्धामुखी नहीं है और न ही वह आत्मलक्ष्यी है। उसकी रुचि हेय को छोड़ने की और उपादेय को ग्रहण करने की ओर सम्मुख नहीं होती। इसी कारण उसकी दृष्टि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org